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________________ परिशिष्ट 2 : कथाएं मुनि को देखकर उसने विनयावनत होकर वंदना की और देखा कि मुनि ध्यान में अडोल खड़े हैं। उसने मन ही मन सोचा-'अहो! आश्चर्य है कि राजर्षि प्रसन्नचन्द्र में तपस्या का इतना सामर्थ्य है।' यह सोचता हुआ राजा श्रेणिक तीर्थंकर महावीर के पास पहुंचा। विनयपूर्वक वंदना कर उसने भगवान् से पूछा-'भगवन् ! जिस समय मैंने अनगार प्रसन्नचन्द्र को वंदना की, उस समय यदि वे कालगत हो जाते तो उनकी कौनसी गति होती?' भगवान् बोले-'सातवीं नरक।' श्रेणिक ने सोचा-'मुनियों का नरक-गमन कैसे?' पुनः उसने भगवान् से पूछा-'भगवन्! प्रसन्नचन्द्र यदि अब कालगत हो जाएं तो कौन सी गति में जायेंगे?' भगवान् बोले-'सर्वार्थसिद्ध महाविमान में।' श्रेणिक बोला-'यह दो प्रकार का कथन कैसे? तपस्वियों का नरक और देवगति में गमन एक साथ कैसे?' भगवान् ने कहा-'ध्यान-विशेष से ऐसा होता है।' श्रेणिक ने पूछा-'भगवन्! यह कैसे हुआ?' भगवान् बोले'तुम्हारे आगे चलने वाले पुरुष के मुंह से अपने पुत्र का परिभव सुनकर मुनि ने प्रशस्तध्यान छोड़ दिया। जब तुम उसे वंदना कर रहे थे, तब वह मुनि अपने अधीनस्थ अमात्यों से सेना के साथ युद्ध कर रहा था अतः उस समय वह अधोगति के योग्य हो गया। तुम वहां से आगे बढ़ गए। तब मुनि प्रसन्नचन्द्र यान-करण आदि युद्ध-सामग्री की शक्ति से अपने आपको रहित जानकर, शीर्षत्राण से शत्रु पर प्रहार करूं यह सोचकर अपने सिर पर हाथ रखा। लुंचित सिर पर हाथ रखते हुए उसने प्रतिबुद्ध होकर सोचा'अहो! अकार्य! अहो! अकार्य! मैंने राज्य को छोड़ दिया परन्तु यतिजनविरुद्ध मार्ग में प्रस्थित हो गया। यह सोचकर मुनि अपने कृत्य की निन्दा-गर्दा करता हुआ मुझे वंदना कर मूल स्थान में आरूढ़ होकर आलोचना-प्रतिक्रमण कर प्रशस्त ध्यान में संलग्न हो गया। उस प्रशस्तध्यान से मुनि ने सारे अशुभ कर्मों का नाश कर पुण्य अर्जित किया। इन दो काल-विभागों के आधार पर दो प्रकार की गतियों का कथन किया गया है।' तब कोणिक ने सुधर्मा से पूछा-'भगवन्! प्रसन्नचन्द्र बालकुमार
SR No.004272
Book TitleAgam Athuttari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2012
Total Pages98
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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