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________________ यथालन्दिकानां तु "तवेण सत्तेण सुत्तेण" इत्यादिका भावनादिवक्तव्यता यथा जिनकल्पिकानाम्, यस्तु विशेषः स लेशतः प्रोच्यते- तत्रोदकाः करो यावत् शुष्यति, तत आरभ्योत्कृष्टतः पञ्च रात्रिन्दिवानि यावत्कालोऽत्र समयपरिभाषया लन्दमित्युच्यते। ततश्च पञ्चरात्रिन्दिवलक्षणस्योत्कृष्टस्य लन्दस्यानतिक्रमेण चरन्तीति यथालन्दिकाः। पञ्चको हि गणोऽमुं कल्पं प्रतिपद्यते, ग्रामं च गृहपति-रूपाभिः षड्भिर्वीथीभिर्जिनकल्पिकवत् परिकल्पयन्ति, किन्त्वेकैकस्यां वीथ्यां पञ्च पञ्च दिनानि पर्यटन्तीत्युत्कृष्टलन्दिचारिणो यथालन्दिका उच्यन्ते। एते च प्रतिपद्यमानका जघन्यतः पञ्चदश भवन्ति, उत्कृष्टतस्तु सहस्रपृथक्त्वम्, पूर्वप्रतिपन्नास्तु जघन्यतः कोटिपृथक्त्वम्, उत्कृष्टतोऽपि कोटिपृथक्त्वं भवन्ति। एते च यथालन्दिका द्विविधा भवन्ति- गच्छे प्रतिबद्धाः, अप्रतिबद्धाश्च, गच्छे च प्रतिबन्धोऽमीषां कारणतः, किञ्चिदश्रुतस्याऽर्थस्य श्रवणार्थमिति मन्तव्यमिति। पुनरेकैकशो द्विविधा:- जिनकल्पिकाः, स्थविरकल्पिकाश्च। ये जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते जिनकल्पिकाः, ये तु पुनरपि स्थविरकल्पं समाश्रयिष्यन्ते ते स्थविरकल्पिकाः। एतेषां च स्थविरकल्पिक-जिनकल्पिकभेदभिन्नानां यथालन्दिकानां परस्परमयं विशेषः, यदाह जिनकल्पिकों की तप, सत्त्व, सूत्र आदि भावनाओं का जो कथन किया गया है, वही यथालन्दिकों की भी जानना / किन्तु इस प्रसंग में जो विशेष बात है, उसे लेश (संक्षेप) रूप से कह रहे हैं- पानी से भीगे हाथों को सूखने में जितना समय लगे, उतने समय से लेकर उत्कृष्टतः पांच रात-दिनों तक जितना समय होता है. उसे सैद्धान्तिक परिभाषा में 'लन्द' कहते हैं। इस प्रकार, पांच रात-दिन के उत्कृष्ट 'लन्द' का अतिक्रमण न करते हुए जो विचरण करते हैं (अर्थात् अधिक से . अधिक पांच रात-दिन ही एक स्थान पर ठहरते हैं), वे 'यथालन्दिक' कहलाते हैं। इस कल्प में पांच साधुओं का गण मान्य किया जाता है। इस कल्प के साधक भी जिनकल्पियों की तरह ग्राम को गृहपंक्तियों के रूप में छ:भागों (गलियों) में कल्पित रूप से विभाजित करते हैं, किन्तु प्रत्येक गली में 55 दिनों तक ही पर्यटन करते हैं, अतः वे 'उत्कृष्टलब्दिचारी यथालन्दिक' कहलाते हैं। ऐसे 'यथालन्दिक' कल्प का अंगीकार कर रहे साधक कम से कम 15 होते हैं। उत्कृष्टतः तो सहस्रपृथक्त्व (यानी दो हजार से लेकर नौ हजार तक) हो सकते हैं। इस कल्प को पूर्व में स्वीकार कर चुके साधक तो जघन्यतः कोटिपृथक्त्व (अर्थात् दो करोड़ से लेकर नौ करोड़ तक), तथा उत्कृष्टतः भी उतने ही- अर्थात् कोटिपृथक्त्व होते हैं। ये यथालन्दिक साधक दो प्रकार के होते हैंगच्छ से जुड़े हुए और किसी गच्छ से नहीं जुड़े हुए। गच्छ से जुड़ना भी इनका किसी कारणवश ही होता है, जैसे किसी अश्रुत पदार्थ के श्रवण हेतु, ऐसा समझना चाहिए। पुनः इनमें से प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं-जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक।जो जिनकल्प को अंगीकार करने वाले होते हैं, वे जिनकल्पिक होते हैं, और जो स्थविरकल्प को अंगीकार करने वाले होते हैं, वे स्थविरकल्पिक कहलाते हैं। स्थविरकल्पिक व जिनकल्पिक भेदों में विभक्त इन 'यथालन्दिक' साधकों का परस्पर कुछ अन्तर (भेद) भी होता है, जैसे कहा गया हैVie 30 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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