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________________ स्वरूपेण पञ्चदशस्वपि कर्मभूमिषु, संहृतस्त्वकर्मभूमिष्वपि भवति। उत्सर्पिण्यां व्रतस्थस्तृतीयचतुर्थारकयोरेव, जन्ममात्रेण तु द्वितीयारकेऽपि, अवसर्पिण्यां तु जन्मना तृतीयचतुर्थारकयोरेव, व्रतस्थस्तु पञ्चमारकेऽपि, संहरणेन तु सर्वस्मिन्नपि काले प्राप्यते। प्रतिपद्यमानकः सामायिक-च्छेदोपस्थापनीयचारित्रयोः, पूर्वप्रतिपन्नस्तु सूक्ष्मसंपराययथाख्यातचारित्रयोरप्युपशमश्रेण्यामवाप्यते। प्रतिपद्यमानानामुत्कृष्टतः शतपृथक्त्वम्, पूर्वप्रतिपन्नानां तु सहस्रपृथक्त्वं जिनकल्पिकानां लभ्यते। जिनकल्पिकः प्रायोऽपवादं नाऽऽसेवते, जङ्घाबलपरिक्षीणस्त्वविहरमाणोऽप्याराधकः। आवश्यिकी-नषेधिकी--मिथ्यादुष्कृतगृहिविषयपृच्छोपसंपल्लक्षणाः पञ्च सामाचार्योऽस्य भवन्ति, न त्विच्छादयः। अन्ये त्वाह :- आवश्यिकी-नैषेधिकीगृहस्थोपसंपल्लक्षणास्तिस्र एव भवन्ति, आरामादिनिवासिन ओघतः पृच्छादीनामप्यसंभवादिति। लोचं चाऽसौ नित्यमेव करोति, इत्येवमाद्यपराऽपि स्थितिर्जिनकल्पिकानामागमादवसेया। परिहारविशुद्धिककल्प-सामाचार्यादिवक्तव्यताऽत्रैव ग्रन्थे पुरस्ताद् वक्ष्यते। तक का श्रुत-ज्ञान होता है और उत्कृष्टतः (अधिक से अधिक) तो सम्पूर्ण दश पूर्व तक श्रुत-ज्ञान सम्भव है। वज्र की दीवार के समान दृढ़ प्रथम 'वज्रऋषभनाराच' संहनन से वह युक्त होता है। स्वरूपतः, कल्प अंगीकार करने की स्थिति पन्द्रहों कर्मभूमियों में से कोई एक हो सकती है, किन्तु संहरण (अपहरण किये जाने की स्थिति) में अकर्मभूमियों में भी उसकी स्थिति हो सकती है। उत्सर्पिणी काल में जिनकल्पी होता है तो तीसरे व चतुर्थ आरे में ही होता है, जन्म तो दूसरे आरे में भी सम्भव है। अवसर्पिणी काल में जिनकल्पी होता है तो जन्म की दृष्टि से उसकी स्थिति तीसरे व चौथे आरे में ही होती है, तथा व्रत-अनुष्ठान की दृष्टि से पांचवें आरे में भी जिनकल्पी की स्थिति होती है। संहरण की दृष्टि से तो सभी कालों में इसकी स्थिति सम्भव है। जिनकल्प अंगीकार कर रहे साधक के सामायिक व छेदोपस्थानीय- ये दो चारित्र होते हैं। जिनकल्प अंगीकार कर चुके साधक को सूक्ष्मसांपराय व यथाख्यातचारित्र, और उपशम श्रेणीइनकी प्राप्ति होती है (क्षपक श्रेणी नहीं)। जिनकल्प स्वीकार कर रहे साधकों की संख्या उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) शतपृथक्त्व (अर्थात् दो सौ से नौ सौ तक), तथा पहले ही स्वीकार कर चुके साधकों की संख्या सहपृथक्त्व (अर्थात् दो हजार से नौ हजार तक) प्राप्त हो सकती है। जिनकल्पी प्रायः अपवाद-मार्ग का सेवन नहीं करता। यदि जंघाबल परिक्षीण हो तो वह विहार न करता हुआ भी आराधक ही होता है (अनाराधक नहीं)। आवश्यिकी, नैषेधिकी, मिथ्यादुष्कृत, गृहिविषयकपृच्छा और गृहिविषयक उपसम्पदा- ये पांचों समाचारी इसके हो सकती हैं, किन्तु इच्छा, मिच्छा आदि समाचारी नहीं होतीं। किन्तु अन्य (आचार्यों) का कथन है कि जिनकल्पी के आवश्यिकी, नैषधिकी और गृहस्थ-उपसंपत्- ये तीन ही समाचारी हो सकती हैं, क्योंकि उद्यान आदि में रहने वाले जिनकल्पी के सामान्यतः पृच्छा आदि तक की सम्भावना नहीं की जा सकती। यह नित्य ही (केश-) 'लोच' करता है। इस प्रकार, अन्य भी जिनकल्प-सम्बन्धी (विशेष) निरूपण आगम से ज्ञात किया जा सकता है। परिहारविशुद्धि कल्प की समाचारी आदि का कथन इसी ग्रन्थ में आगे किया जाएगा। Im ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 29
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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