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________________ तच्च व्याख्यानमित्थं युक्तमपि "गौराग्यां गौरत्वपाण्डुरोग"-न्यायेन मतिमान्द्यात् सांप्रतकालीनशिष्याणां न तथाविधार्थावगमहेतुतां प्रतिपद्यते, इत्याकलय्य मन्दमतिनाऽपि मया तेषां मन्दतरमतीनां शिष्याणामर्थावगमनिमित्तममुना ऋजुभणितिप्रकारेणेयं गाथा व्याख्याता, सर्वोऽपि च ग्रन्थोऽयमनेनोल्लेखेन व्याख्यास्यत इति प्रतिपत्तव्यम्।न च वक्तव्यम्-येषां महामतिपूर्वपुरुषवचनैरर्थावबोधो न संपद्यते, तेषां मन्दबुद्धर्भवतो वचनेन कुतोऽयं संपत्स्यते? इति, यतो जायत एव समानशीलवचनैः समानशीलानामर्थप्रतिपत्तिः, यदाह"गामिल्लुआण गामिल्लुएहिं मिच्छाण होन्ति मिच्छेहिं / सम्मं पडिवत्तीउ अत्थस्स न विबुहभणिएहिं // 1 // निअभासाए भणंते समाणसीलम्मि अत्थपडिवत्ती। जायइ मंदस्स वि न उण विविहसक्कयपबंधेहिं"॥२॥[संस्कृतच्छाया-ग्रामीणानां ग्रामीणैर्लेच्छानां भवन्ति म्लेच्छैः। सम्यक् प्रतिपत्तयोऽर्थस्य न विबुधभणितैः॥ निजभाषया भणति समानशीलेऽर्थप्रतिपत्तिः। जायते मन्दस्यापि न पुनर्विधसंस्कृतप्रबन्धैः॥] इत्यलमतिबहुभाषितेन // इति गाथार्थः॥१॥ आवश्यकानुयोगोऽत्राऽभिधास्यत इत्युक्तम्, किं पुनरस्य फलादिकम्, यदवगम्य वयं तच्छ्रवणादौ प्रवर्तामहे?, इति प्रेक्षावच्छिष्यवचनमाशङ्कयाऽऽवश्यकानुयोगस्य फलादीन्यभिधित्सुस्तत्संग्रहपरां द्वारगाथामाह है, तथापि, जिस प्रकार गौरवर्णा नारी को कोई (मन्दमति) व्यक्ति पाण्डुरोगग्रस्त मान बैठता है, उसी प्रकार आज के शिष्यों के लिए, उनके मन्दमति होने के कारण, (वह व्याख्यान) अपने वास्तविक अर्थ का बोधक नहीं हो पाता है- इस स्थिति को दृष्टिगत रख कर मन्दबुद्धि होते हुए भी मैंने मन्दतरबुद्धि वाले शिष्यों को अर्थ-बोध कराने हेतु इन (उपर्युक्त) सरल उक्तियों द्वारा इस गाथा का व्याख्यान किया है और (आगे) समस्त ग्रन्थ का भी व्याख्यान इसी निर्देश के अनुरूप किया जायेगा- यह ज्ञातव्य है। 'जब महान् बुद्धिशाली महापुरुषों के कथन से भी जिन्हें अर्थज्ञात न हो पाता है, तब आप जैसे मन्दमति के वचनों से उन्हें अर्थबोध कैसे हो जायेगा?' - ऐसा भी कहना उचित नहीं है, क्योंकि एक समान शील (आचार) व भाषा वालों में परस्पर अर्थबोध (सहजतया) हो ही जाता है। कहा भी है- ग्रामीणों को ग्रामीणों (के वचनों) से तथा म्लेच्छों को म्लेच्छों (के वचनों) से अर्थ-बोध अच्छी तरह हो जाता है, न कि पाण्डित्यपूर्ण वचनों से। एक मन्द व्यक्ति को भी, जब उसे समान स्वभाव वाला व्यक्ति अपनी भाषा में कुछ कहता है तो, उसे अर्थ-बोध हो जाता है, न कि विविध संस्कृत-रचनाओं से / अतः यहां और अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार गाथा का अर्थ पूरा हुआ // 1 // (आवश्यकानुयोग के विविध द्वार और उनके भेद) ___आवश्यक-सम्बन्धी अनुयोग का निरूपण इस ग्रन्थ में किया जायेगा- ऐसा (पूर्व में) कहा गया है। उसके फल आदि क्या हैं जिसे जानकर हम उसके श्रवण में प्रवृत्त हों? -इस प्रकार किसी समझदार शिष्य के (सम्भावित जिज्ञासात्मक) वचन की आशंका में, आवश्यक-अनुयोग के फल आदि के निरूपण करने के इच्छुक (भाष्यकार) उन्हें समाहित करने वाली द्वार-गाथा का यहां कथन कर रहे हैंvia ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 9
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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