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________________ अनेन चाभिधेयाद्यभिधानेन शास्त्रश्रवणादौ शिष्यप्रवृत्तिःसाधिता भवति, अन्यथा हि'न श्रवणादियोग्यमिदम, निरभिधेयत्वात, काकदन्तपरीक्षावत्', इत्याशक्य नेह कश्चित् प्रवर्तते। उक्तं च-"सीसपवित्तिनिमित्तं अभिधेयपओयणाई संबंधो। वत्तव्वाइं सत्थे तस्सुन्नत्तं सुणिज्जिहरा" // 1 // [संस्कृतच्छाया:- शिष्यप्रवृत्तिनिमित्तम् अभिधेयप्रयोजने सम्बन्धः। वक्तव्यानि शास्त्रे, तच्छून्यत्वं श्रृणुयादितरथा // ] एवं मङ्गलाद्यभिधाने व्यवस्थापिते कश्चिदाह-नन्वर्हदादय एवेष्टदेवतात्वेन प्रसिद्धाः, तत्किमिति तान् विहाय ग्रन्थकृता प्रवचनस्य नमस्कारः कृतः? इति। अत्रोच्यते- "नमस्तीर्थाय" इति वचनादर्हदादीनामपि प्रवचनमेव नमस्करणीयम्, अपरं चाहदादयोऽप्यस्मदादिभिः प्रवचनोपदेशेनैव ज्ञायन्ते, तीर्थमपि च चिरकालं प्रवचनावष्टम्भेनैव प्रवर्तते, इत्यादिविवक्षयाऽहंदादिभ्योऽपि प्रवचनस्य प्रधानत्वात्, ज्ञानादिगुणात्मकत्वाच्चेष्टदेवतात्वं न विरुध्यते। प्रवचननमस्कारं च कुर्वद्भिः पूज्यैः सिद्धान्ततत्त्वागमरसानुरञ्जितहृदयत्वादात्मनः प्रवचनभक्त्यतिशयः प्रख्यापितो भवति, इत्यलमतिविस्तरेण। मङ्गलादिविचारविषये ह्याक्षेपपरिहारादिकमिहैव ग्रन्थकारोऽपि न्यक्षेण वक्ष्यतीति॥ तदेवमियं गाथा, सर्वोऽपि चायं ग्रन्थो महामतिभिः पूर्वसूरिभिर्गम्भीरवाक्यप्रबन्धैर्युत्पन्नभणितिप्रकारेण च व्याख्यातः। अभिधेय आदि के कथन के माध्यम से ग्रन्थकार ने इस शास्त्र के श्रवण आदि में शिष्यों को प्रवृत्त कराया है। अन्यथा 'यह शास्त्र श्रवणादि के अयोग्य है, अभिधेय-रहित होने से, कौए के दांतों की परीक्षा (के निर्देशक ग्रन्थ) की तरह' इस अनुमान के आधार पर आशंका-युक्त कोई भी व्यक्ति इसमें प्रवृत्त नहीं होता। कहा भी है- सीसपवित्तिनिमित्तं अहिधेयपयोयणाई संबंधो / वत्तव्वाइं सत्थे तस्सुनत्तं सुणिज्जिहरा // अर्थात् शिष्यों की शास्त्र में प्रवृत्ति हो -इस दृष्टि से शास्त्र के प्रारम्भ में अभिधेय, प्रयोजन : व सम्बन्ध का कथन करना चाहिए, इनसे रहित शास्त्र का श्रवण नहीं किया जाता। - इस प्रकार मङ्गल आदि से सम्बन्धित कथन की सम्पन्नता पर कोई शंकाकार कहता हैवास्तव में जब अर्हत् आदि इष्ट देवता के रूप में प्रसिद्ध हैं, तो ग्रन्थकर्ता के द्वारा उनको छोड़कर प्रवचन को नमस्कार क्यों किया गया है? इसका समाधान यहां यह है- 'नमस्तीर्थाय' इस वचन के आधार पर अर्हन्त आदि भी 'प्रवचन' को नमस्कार करते हैं, दूसरे, अर्हन्त आदि को भी हम प्रवचनउपदेश से ही जानते हैं। तीर्थ भी चिरकाल तक प्रवचन के द्वारा ही प्रवर्तित होता है- इत्यादि अभिप्रायों से प्रवचन को प्रधानता (उत्कृष्टता) प्राप्त है। ज्ञानादि गुणों (से युक्त होने) के कारण 'प्रवचन' को इष्टदेवता मानने में कोई विरोध नहीं है। सिद्धान्त, तत्त्व व आगमों के रस में अनुरक्त रहने वाले पूज्य भाष्यकार ने 'प्रवचन' को नमस्कार कर अपनी अत्यधिक प्रवचन-भक्ति को प्रकट किया है। इस पर अब और अधिक चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है। मङ्गल आदि से सम्बन्धित विचार के प्रसंग में (सम्भावित) आक्षेप व उनके परिहार आदि का निरूपण यहीं स्वयं ग्रन्थकार (भाष्यकार) गौणरूप से करने वाले हैं। महान् बुद्धिशाली प्राचीन आचार्यों ने भी इस (प्रथम) गाथा तथा (परवर्ती) समस्त ग्रन्थ का गम्भीर वाक्य-रचना तथा विद्वत्तापूर्ण-उक्तियों द्वारा व्याख्यान किया है। वह व्याख्यान यद्यपि युक्तियुक्त Me 8 -------- विशेषावश्यक भाष्य ---- ------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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