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________________ 'तेणं सद्देत्ति उग्गहिए' इत्यादिसूत्रस्य यथाश्रुतार्थनिगमनं प्रयोजनमिति चेत् ।न, सद्दे त्ति भणइ वत्ता' इत्यादिप्रकारेणाऽपि तस्य निगमितत्वात्। सामर्थ्यव्याख्यानमिदम्, न यथाश्रुतार्थव्याख्येति चेत् / तर्हि यधुपचारेणाऽपि श्रौतोऽर्थः सूत्रस्य व्याख्यायते इति तवाभिप्रायः, तर्हि यथा युज्यत उपचारः, तथा कुरु, न चैवं क्रियमाणोऽसौ युज्यते, यतः ‘सिंहो माणवकः"समुद्रस्तडागः' इत्यादाविव किञ्चित्साम्ये सत्ययं विधीयमानः शोभते। न चैतत्सामयिकेऽर्थावग्रहेऽसंख्येयसामयिकं विशेषग्रहणं कथमप्युपपद्यते। तर्हि कथमयमुपचारः क्रियमाणो घटते?, इति चेत् / अहो! सुचिरादुपसन्नोऽस्ति। ततः श्रृणु समाकर्णयाऽवहितेन मनसा, सोऽपि यथा युज्ज्यते तथा कथयामि'सद्दे ति भणइ वत्ता' इत्यादिप्रकारेण तावद् व्याख्यातं सूत्रम्। यदि चौपचारिकेणाऽप्यर्थेन भवतः प्रयोजनम्, तर्हि सोऽपि यथा . घटमानकस्तथा कथ्यत इति 'अपि'-शब्दाभिप्रायः॥ इति गाथार्थः // 281 / / यथाप्रतिज्ञातमेव संपादयन्नाह (पुनः पूर्वपक्षी का कथन) “उसने 'शब्द' इस रूप में अवगृहीत किया” -इत्यादि सूत्र की आगमानुरूप संगति बैठाना -यह प्रयोजन तो है। (उत्तर-) ऐसा नहीं, क्योंकि (गाथा-253 में) “वक्ता . (के रूप में) 'शब्द' यह कहा है" -इत्यादि रीति से भी उस (सूत्र) की संगति बैठाई जा चुकी है (अतः वह प्रयोजन तो बिना उपचार के भी सिद्ध हो जाता है, ऐसी स्थिति में उपचार की कोई जरूरत नहीं रह जाती)। (पूर्वपक्षी का कथन-) आपके द्वारा (गाथा-253 में) की गई व्याख्या 'सामर्थ्य व्याख्यान' (बुद्धि-सामर्थ्य से किया गया) है, अर्थ की आगमानुरूप व्याख्या नहीं है। (उत्तर-) फिर तो, (हमारा यह कहना है कि) उपचार से भी सूत्र का श्रौत (आगमिक) अर्थ व्याख्यायित किया जाता है, यदि ऐसा आपका अभिप्राय है, तब आप (उपचार कर सकते हैं, किन्तु) जिस रीति से उपचार उपयुक्त हो, वैसा (उपचार) करें। किन्तु (यहां) उपचार किया जाना उपयुक्त नहीं होता, क्योंकि 'बालक सिंह है', 'तालाब समुद्र है' इत्यादि कथनों की तरह कुछ साम्य होने पर (ही) उपचार किया जाना शोभित होता है- ठीक रहता है। किन्तु एक समय वाले 'अर्थावग्रह' में असंख्येय समय वाला विशेष-ग्रहण (विशेष ज्ञान) मानना तो किसी भी रूप में संगत नहीं है। (पूर्वपक्षी का कथन-) तब (आप ही बताइये कि) वह उपचार किस प्रकार किया जाय कि संगतिपूर्ण हो? (उत्तर-) अहो! बड़ी देर के बाद रास्ते पर आए हैं। (आप पूछ ही रहे हैं तो) सावधान मन से सुनें / वह जिस प्रकार संगत होता है, उसे बता रहे हैं- “वक्ता (के रूप में) 'शब्द' यह कह रहे हैं" -इत्यादि प्रकार से (गाथा-253 में) तो सूत्र की व्याख्या कर दी गई है। यदि (फिर भी) औपचारिक रूप अर्थ करना ही आपका प्रयोजन है तो वह भी जिस प्रकार संगत हो सकता है, वैसा बता रहा हूं -यह ('वह भी' इसमें प्रयुक्त) 'भी' (अपि) शब्द का अभिप्राय है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 281 / / (धारणा, वासना व स्मृति का काल) अपनी प्रतिज्ञा (वादे) को ही पूरा करते हुए (भाष्यकार) कह रहे हैं विशेषावश्यक भाष्य -- ------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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