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________________ ननु ग्रहणम्, ईहा च विशेषावगमस्य लक्षणं भवतु, ताभ्यां विना तदभावात्, अपायस्तु कथं तल्लक्षणम्, तत्स्वरूपत्वादेवास्य?। सत्यम्, किन्तु स्वरूपमपि भेदविवक्षया लक्षणं भवत्येव, यदाह विषाऽमृते स्वरूपेण लक्ष्येते कलशादिवत्। एवं च स्वस्वभावाभ्यां व्यज्येते खल-सज्जनौ॥१॥ आह- यदि बहु-बहुविधादिग्राहकोऽपाय एव भवति, तर्हि कथमन्यत्राऽवग्रहादीनामपि बह्वादिग्रहणमुक्तम्?। सत्यम् किन्त्वपायस्य कारणमवग्रहादयः, कारणे च योग्यतया कार्यस्वरूपमस्ति, इत्युपचारतस्तेऽपि बह्रादिग्राहकाः प्रोच्यन्ते, इत्यदोषः। यद्येवम्, तर्हि वयमप्यपायगतं विशेषज्ञानमर्थावग्रहेऽप्युपचरिष्याम इति। एतदेवाह- 'अहेत्यादि'। अथोक्तन्यायेनोपचारं कृत्वा विशेषग्राहकोऽर्थावग्रहः प्रोच्यते / नैतदेवम्, यतो मुख्याभावे सति प्रयोजने चोपचारः प्रवर्तते। न चैवमुपचारे किञ्चित् प्रयोजनमस्ति। कारण से या अपनी जड़ता या दुराग्रह के कारण बार-बार हमें कहने को प्रेरित (बाध्य) करते हैं तो हम क्या करें? पुनरुक्ति भी हमें करनी पड़ रही है ताकि प्रयास करके भी किसी को (समीचीन) मार्ग पर लाया जा सके। (पूर्वपक्षी वादी के ओर से कथन-)ग्रहण व ईहा -ये विशेष ज्ञान के लक्षण हों (तो कोई बात नहीं), क्योंकि उन दोनों (ग्रहण व ईहा) के बिना विशेष ज्ञान नहीं होता, किन्तु 'अपाय' को उस (विशेष ज्ञान) का लक्षण कैसे कहा जा सकता है? क्योंकि वह (विशेष ज्ञान) तो उस अपाय का स्वरूप ही है (अतः लक्षण कैसे?)। (उत्तर-) आपकी बात सही है, किन्तु स्वरूप भी तो भेदविवक्षा (भेद दृष्टि से) लक्षण होता ही है। कहा भी है “कलश आदि की तरह ही जिस प्रकार विष या अमृत अपने-अपने स्वरूप के कारण लक्षित हो जाते (पहचाने जाते) हैं, उसी तरह खल (दुष्ट) या सज्जन (भी) अपने-अपने स्वभाव के कारण पहचाने जाते हैं।" .. __(पूर्वपक्षी वादी का) पुनः कथन- यदि बहु, बहुविध आदि (अर्थ) का ग्राहक 'अपाय' ही होता है.तो फिर अन्य ग्रन्थों में अवग्रहादि द्वारा बहु आदि का ग्रहण होना कैसे कहा गया है? (उत्तर-) आपका कहनां सही है, किन्तु अपाय के कारण अवग्रह आदि होते हैं, और कारण में योग्यता की दृष्टि से कार्य स्वरूपतः रहता है, इस दृष्टि से, औपचारिक रूप से उन कारणों को भी बहु आदि का ग्राहक कह दिया गया है, अतः (शास्त्रान्तर में प्राप्त अवग्रह के उक्त भेदों के कथन में) कोई दोष नहीं है। (पुनः पूर्वपक्षी वादी का कथन-) यदि ऐसी (उपचार कथन वाली) बात है तो हम भी अर्थावग्रह में अपायगत विशेष ज्ञान का होना उपचार से मान लेंगे। इसी (पूर्वपक्षी की) बात को कह रहे हैं- (अथ उपचारः क्रियते)। उक्त (उपचार-कथन सम्बन्धी) न्याय (सिद्धान्त) से (ही) हम उपचार से अर्थावग्रह को विशेष-ग्राहक कह रहे हैं (तो क्या दोष है?) (उत्तर-) वह इस दृष्टि से (मान्य) नहीं है, क्योंकि उपचार की प्रवृत्ति तभी की जाती है जब मुख्य अर्थ घटित नहीं होता हो, और किसी विशेष प्रयोजन को अभिव्यक्त करना हो। किन्तु इस प्रकार के उपचार में (अर्थात् अर्थावग्रह को विशेष-ग्राहक कहने में) कोई प्रयोजन (सिद्ध) नहीं (होता) है। -------- विशेषावश्यक भाष्य - - - --- 409 -
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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