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________________ कुतः? इत्याह- अर्थव्यञ्जनसंबन्धाभावादिति-अर्थः शब्दादिविषयभावेन परिणतद्रव्यसमूहः, व्यञ्जनं तु श्रोत्रादि, अर्थश्च व्यञ्जनं चाऽर्थव्यञ्जने, तयोः संबन्धस्तस्याऽभावात्, सति ह्यर्थ-व्यञ्जनसंबन्ध सामान्यार्थालोचनं स्यात्, अन्यथा सर्वत्र सर्वदा तद्भावप्रसङ्गात् / व्यञ्जनावग्रहाच्च पूर्वमर्थव्यञ्जनसंबन्धो नास्ति, तद्भावे च व्यञ्जनावग्रहस्यैवेष्टत्वात् तत्पूर्वकालता न स्यादिति भावः॥ इति गाथार्थः // 274 // द्वितीयविकल्पं शोधयन्नाह अत्थोग्गहो वि जं, वंजणोग्गहस्सेव चरमसमयम्मि। पच्छा वि तो न जुत्तं, परिसेसं वंजणं होज्जा // 275 // [संस्कृतच्छाया:-अर्थावग्रहोऽपि यद् व्यञ्जनावग्रहस्यैव चरमसमये। पश्चादपि अतो न युक्तम्, परिशेषं व्यञ्जनं भवेत्॥] तथा, अर्थावग्रहोऽपि यद् यस्माद् व्यञ्जनावग्रहस्यैव चरमसमये भवति, इति प्रागिहापि निर्णीतम्। तस्मात् पश्चादपि दालोचनज्ञानं न युक्तम, निरवकाशत्वात / न हि व्यञ्जनाऽर्थावग्रहयोरन्तरे काल: समस्ति,यत्र तत त्वदीयमालोचनज्ञानं. व्यञ्जनावग्रह से) 'पहले वह नहीं (हो सकता) है' -इस कथन का योग यहां करणीय है। (प्रश्न-) किस प्रकार (पहले वह नहीं है)? उत्तर दिया- (अर्थव्यअनसम्बन्धाभावतः)। क्योंकि वहां अर्थ और व्यञ्जन के सम्बन्ध का अभाव है। अर्थ यानी शब्दादि विषय रूप से परिणत होने वाला द्रव्य-समूह, व्यञ्जन यानी श्रोत्र आदि (इन्द्रियां), अर्थ व व्यञ्जन -इन दोनों का जो सम्बन्ध होता है, उसका वहां सद्भाव नहीं है। अर्थ व व्यञ्जन का सम्बन्ध होने पर ही सामान्य अर्थ का आलोचन ज्ञान हो सकता है, अन्यथा सर्वत्र सर्वदा उस (आलोचन ज्ञान) का सद्भाव होने लगेगा। व्यञ्जनावग्रह से पूर्व अर्थव्यञ्जन सम्बन्ध नहीं होता। उस (अर्थ व व्यञ्जन-सम्बन्ध) के होने पर व्यञ्जनावग्रह का ही सद्भाव अभीष्ट है। इस प्रकार, व्यञ्जनावग्रह से पहले आलोचन ज्ञान का होना सम्भव नहीं होगा -यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 274 // अब, द्वितीय विकल्प का परिमार्जन (दोष-उद्भावन कर, उसे छोड़ने की प्रेरणा) कर रहे हैं // 275 // अत्थोग्गहो वि जं, वंजणोग्गहस्सेव चरमसमयम्मि / पच्छा वि तो न जुत्तं, परिसेसं वंजणं होज्जा // [(गाथा-अर्थ :) अर्थावग्रह भी व्यञ्जनावग्रह के चरम समय में होता है, अतः (व्यञ्जनावग्रह के) बाद भी (आलोचन ज्ञान का) होना युक्तियुक्त नहीं है, अतः अवशिष्ट विकल्प यही है कि व्यञ्जनावग्रह ही (वह आलोचन ज्ञान) है।] व्याख्याः - और, चूंकि अर्थावग्रह भी व्यञ्जनावग्रह के चरम समय में ही होता है- यह पहले यहीं निर्णीत हो चुका है। इसलिए व्यञ्जनावग्रह के बाद भी आलोचन ज्ञान का होना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो 'अर्थावग्रह' निरवकाश हो जाएगा (अर्थावग्रह फिर कभी नहीं हो via 400 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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