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________________ [संस्कृतच्छाया:-अर्थावग्रहो न समयम् अथवा समयोपयोगबाहुल्यम्। सर्वविशेष-ग्रहणं सर्वमतिर्वा अवग्रहो ग्राह्यः॥ एको वाऽपायः एवाथवा सोऽगृहीत-अनीहितः प्राप्तः। उत्क्रम- व्यतिक्रमौ वा प्राप्तौ ध्रुवम् अवग्रहादीनाम् ॥सामान्यं च विशेष:स वा सामान्यमुभयं वा / न च युक्तं सर्वमिदं (वा) सामान्यालम्बनं मुक्त्वा // ] व्याख्या- "उग्गहो एक्कं समयं" इत्यादिवचनादर्थावग्रहः सिद्धान्ते सामयिको निर्दिष्टः, यदि चावग्रहे विशेषविज्ञानमभ्युपगम्यते तदा सामयिकोऽसौ न प्राप्नोति, विशेषज्ञानस्याऽसंख्येयसामयिकत्वात्। अथ समयमात्रेऽप्यस्मिन् विशेषज्ञानमिष्यते, तर्हि 'सामण्ण-तयण्णविसेसेहा' इत्यादिना समयोपयोगबाहुल्यं प्राप्नोति। . - अथवेत्यग्रतोऽप्यनुवर्तते / ततश्चाऽथवा परिचितविषयस्य विशेषज्ञानेऽभ्युपगम्यमाने परिचिततरविषयस्य तस्मिन्नेव समये सर्वविशेषग्रहणमनन्तरोक्तं प्राप्नोति। [(गाथा-अर्थ :) यदि वहां (अर्थावग्रह में) सामान्य के ग्रहण (की मान्यता) का त्याग कर दें (और वहां विशेष ज्ञान का सद्भाव ही मानें) तो (1) अर्थावग्रह की एक समयवर्तिता का खण्डित होना, अथवा (2) अर्थावग्रह में एक समय में ही उपयोग-बहुलता (का दोष), अथवा (3) एक ही समय में सभी विशेषों के ग्रहण का होना (दोष), अथवा (4) समस्त मति की मात्र अवग्रह में ग्राह्यता (अर्थात् ईहा आदि के अभाव होने का दोष), अथवा (5) समस्त मति का अपाय रूप मात्र ही रह जाना (मति ज्ञान के अन्य भेदों के अभाव का दोष), अथवा (6) उस अपाय का अगृहीत व अनीहित (अर्थग्रहण से तथा ईहा से रहित) हो जाना (यह दोष), अथवा (7) अवग्रह (ईहा, अपाय) आदि (के एक निश्चित क्रम) में निश्चित रूप से उत्क्रम : या व्यतिक्रम (विपरीत क्रम या अनियत क्रम) होना, अथवा (8) (वस्तुतः जो) सामान्य (है, उस) की विशेषरूपता, अथवा (9) (जिसे आप 'विशेष' कहेंगे, उस) 'विशेष' की (वस्तुतः) सामान्य रूपता, अथवा (10) दोनों की उभयरूपता (अर्थात् सामान्य व विशेष - इनमें से प्रत्येक की उभयरूपता) - ये सब (आगमविरुद्ध स्वरूप प्रसक्त) होंगे, जो उपयुक्त (समीचीन) नहीं हैं।] व्याख्याः- (1) 'अवग्रह एक समय वाला होता है' इत्यादि (आगमिक) वचन से सिद्धान्त में अर्थावग्रह को एक समय वाला निर्दिष्ट किया गया है। यदि अर्थावग्रह में विशेष ज्ञान का सद्भाव माना जाए तो फिर यह एकसमयवर्ती नहीं रहेगा, क्योंकि विशेष ज्ञान असंख्येय समय वाला होता है। (2) और, यदि एक समय वाले अर्थावग्रह में ही विशेष ज्ञान का सद्भाव मानेंगे तो (गाथा267 में) 'सामान्य-तदन्यविशेष-ईहा' इत्यादि रूप से पहले कहा गया 'समयोपयोगबहुलता का दोष' प्रसक्त होता है। 'अथवा' इस पद की अनुवृत्ति आगे (के दोषों में) भी होती है। इसलिए, अथवा (3) परिचितविषय वाले व्यक्ति के विशेष ज्ञान का होना मानने पर, अपेक्षाकृत अधिक परिचित विषय वाले को, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, उसी समय में समस्त विशेषों का ग्रहण होने लगेगा। 394 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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