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________________ किञ्चिदूनाधिकावस्थम् / कुतः?, इत्याह- 'पुव्वदोसउ त्ति'। जेणत्थोग्गहकाले' इत्यादिना, 'सामण्ण-तयण्ण-' इत्यादिना च यः पूर्वं दोषोऽभिहितस्तस्मात् पूर्वदोषात्-पूर्वदोषाऽनतिवृत्तेः, तदेतत्परोक्तं तदवस्थमेव, इति नान्यदूषणाभिधान-प्रयासो विधीयत इति भावः। अथवाऽपूर्वमपि दूषणमुच्यते। किं तत्?, इत्याह- 'तम्मि चेवेत्यादि ।वा इत्यथवा, तस्मिन्नेव स्पष्टविज्ञानस्य व्यक्तस्य जन्तोर्विशेषग्राहिणि समये 'शाङ्खः, शा? वाऽयं शब्दः, स्निग्धः, मधुरः, कर्कशः, स्त्री-पुरुषाद्यन्यतरवाद्यः' इत्यादि सुबहुकविशेषग्रहणं प्रसज्ज्येत। इदमुक्तं भवति-यदि व्यक्तस्य परिचितविषयस्य जन्तोरव्यक्तशब्दज्ञानमल्लंघ्य तस्मिन्नर्थावग्रहैकसमयमात्रे शब्दनिश्चयज्ञानं. भवति, तदाऽन्यस्य कस्यचित् परिचिततरविषयस्य पटुतरावबोधस्य तस्मिन्नेव समये व्यक्तशब्दज्ञानमप्यतिक्रम्य 'शाङ्खोऽयं शब्द:' इत्यादि संख्यातीतविशेषग्राहकमपि ज्ञानं भवदभिप्रायेण स्यात्, दृश्यन्ते च पुरुषशक्तीनां तारतम्यविशेषाः। भवत्येव कस्यचित् प्रथमसमयेऽपि सुबहुविशेषग्राहकमपि ज्ञानमिति चेत् / न, 'न उण जाणइ के वेस सद्दे' इत्यस्य सूत्रावयवस्याऽगमकत्वप्रसङ्गात्। 21N कथन की जो स्थिति थी, या (जैसा दूषित) स्वरूप था, 'एक समय में ही परिचित विषय का विशेष ज्ञान हो जाता है' -इस परकीय (अन्य वादी के) कथन की भी वही ज्यों की त्यों स्थिति है, कोई कमी या अधिकता नहीं हुई है। (प्रश्न-) कैसे? उत्तर दिया- (पूर्वदोषतः इति)। (गाथा 266-267 में) पूर्व में 'चूंकि अर्थावग्रह काल में' इत्यादि, तथा 'सामान्य तदन्यविशेष-ईहा' इत्यादि कथन कर जो दोष प्रदर्शित किये थे, उन पूर्वोक्त दोषों का निराकरण नहीं हो पाया है, इसलिए परपक्षी द्वारा किया गया कथन ज्यों का त्यों (दूषित ही बना हुआ) है, इसलिए अन्य दोष कहने का प्रयास नहीं कर रहे हैंयह तात्पर्य है। अथवा, अपूर्व (पूर्वोक्त दोष से अन्य) दोष का कथन कर रहे हैं। (प्रश्न-) वह क्या (दोष) है? उत्तर दिया- (तस्मिन्नेव वा इत्यादि)। 'वा' का अर्थ है- अथवा, प्राणी के उत्पन्न होने वाले स्पष्ट व व्यक्त विज्ञान के उसी विशेषग्राही समय में 'यह शङ्ख का है', यह शृंगी (सींग से बने) वाद्य का है, स्निग्ध है, मधुर है, कर्कश है, स्त्री या पुरुष आदि, इनमें से अमुक द्वारा बजाया गया है- इत्यादि बहुत-बहुत से विशेषों का ग्रहण होने लगेगा। तात्पर्य यह है कि यदि व्यक्त व परिचित विषय वाले प्राणी को अव्यक्त शब्द ज्ञान न होकर (सीधे ही) अर्थावग्रह के एक समय में शब्द-सम्बन्धी निश्चय ज्ञान हो जाता है, तो आपके अभिप्राय के अनुसार किसी और व्यक्ति को जो अपेक्षाकृत अधिक परिचित विषय वाला है और अपेक्षाकृत अधिक पटु ज्ञान वाला है, -उसी समय में व्यक्त शब्द ज्ञान भी न होकर (सीधे ही) 'यह शङ्ख का शब्द है' -इत्यादि असंख्य विशेषों का ग्राहक ज्ञान भी होने लगेगा, क्योंकि पुरुष की शक्तियों में तरतमताएं देखी जाती हैं। (यदि आप कहें कि इसमें क्या दोष है, अपितु यह तो वास्तविकता है, क्योंकि) 'किसीकिसी को प्रथम समय में भी बहुत से विशेषों का ग्राहक ज्ञान होता देखा जाता है। तो आपका यह 392 --- -- विशेषावश्यक भाष्य
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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