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________________ प्रतिसमयप्रवेशेनाऽऽदित आरभ्याऽसंख्येयसमयैः प्रविष्टा असंख्येयसमयप्रविष्टाः पुद्गलाः शब्दद्रव्यविशेषा ग्रहणमागच्छन्तिअर्थावग्रहज्ञानहेतवो भवन्तीति भावः। इह च चरमसमयप्रविष्टा एव विज्ञानजनकत्वेन ग्रहणमागच्छन्ति, तदन्ये त्विन्द्रियक्षयोपशमोपकारिण इति सर्वेषां सामान्येन ग्रहणमुक्तम्। सेयं प्रतिबोधकदृष्टान्तेन व्यञ्जनावग्रहप्ररूपणा' इति वाक्यशेषः॥ अथ केयं मल्लकदृष्टान्तेन प्ररूपणा?। तद्यथा नाम कश्चित् पुरुष आपाकशिरसो मल्लकं शरावं गृहीत्वा, रूक्षमिदं भवतीत्यस्य ग्रहणम्। तत्र मल्लके एकमुदकबिन्दुं प्रक्षिपेत् स नष्टः, तत्रैव तद्भावपरिणतिमापन्न इत्यर्थः। शेषं सुबोधं यावद् ‘जेणं तं मल्लगे'। 'रावेहिति' आर्द्रतां नेष्यति।शेषं सुबोधम्। नवरं 'पवाहेहिति' प्लावयिष्यतीति। एवामेवेत्यादि। अतिबहुत्वात् प्रतिसमयमनन्तैः शब्दपुद्गलैर्यदा तद् व्यञ्जनं पूरितं भवति, तदा 'हुँ' इति करोति, तमर्थं गृह्णातीत्युक्तं भवति / किं विशिष्टं?, नाम-जात्यादिकल्पनारहितम्। अत एवाऽऽह- 'नो चेव णं जाणइ के वेस सद्दाइ त्ति' न पुनरेवं जानाति क एष शब्दादिः? इत्यर्थः। एवं च सति सामयिकत्वादर्थावग्रहस्य, अर्थावग्रहात् पूर्वं सर्वो व्यञ्जनावग्रहः"॥ में (यह प्रतिषेध है)-ऐसा समझना चाहिए, अन्यथा मात्र सम्बन्ध की बात करें तो प्रथम समय से ही पुद्गल ग्रहण में आते ही हैं। (असंख्येय समय... इत्यादि)। अर्थात् प्रत्येक समय प्रविष्ट होते हुए असंख्येय समयों में प्रविष्ट होते रहने वाले शब्दात्मक द्रव्यविशेष रूप पुदगल प्रारम्भ से ही ग्रहण में आते हैं, वे अर्थावग्रह ज्ञान के हेतु होते हैं- यह भाव है। यहां यह बताया गया है कि चरम समय में प्रविष्ट पुद्गल ही विज्ञान-जनक के रूप में ग्रहण में आते हैं, बाकी पुद्गल तो इन्द्रिय-सम्बन्धी क्षयोपशम में उपकारी होते हैं, इस प्रकार सामान्यतया तो सभी (समयों के) पुद्गलों का ग्रहण में आना बताया गया है। 'यह तो हुई प्रतिबोधक दृष्टान्त के माध्यम से व्यञ्जनावग्रह की प्ररूपणा' -यह कथन पूरे वाक्य का शेष (अंतिम) भाग है। अब, मल्लक (मिट्टी के पात्र-सकोरे के) दृष्टान्त के माध्यम से प्ररूपणा क्या है? (वह इस प्रकार है-) जैसे कोई 'आपाकशीर्ष' (घड़े आदि पकाने के स्थान) में रखे हुए (एक) मल्लक यानी * शराव (सकोरे) को लेता है और 'यह रूखा है'- इस रूप में उसे ग्रहण करता है। वह इस शराव में जल की एक बूंद डालता है, किन्तु वह (डालते ही) नष्ट हो (सूख) जाती है, अर्थात् वहीं वह उस शराव की परिणति को प्राप्त हो जाती है। (येन तत् मल्लकम् आर्द्रतां नेष्यति)। (अर्थात्) 'जिससे यह मल्लक गीला हो जाएगा' -यहां तक का शेष पाठ सुगम है (अतः उसकी व्याख्या करना जरूरी नहीं)। किन्तु (प्लावयिष्यति)। (अर्थात्) 'इसी तरह (क्रमशः) अनन्त पुद्गलों से वह पात्र पूर्ण हो जाएगा' (डालते जा रहे जल-बिन्दुओं की तरह ही) अधिकता से प्रत्येक समय अनन्त शब्द-पुद्गलों से जब वह 'व्यअन' पूर्ण होगा, तब (श्रोता) हुँ' करता है (हुंकार भरता है) और अर्थ का ग्रहण करता है- यह कहा गया है। (प्रश्न-) वह अर्थ कैसा है? (उत्तर दिया-) नाम, जाति आदि कल्पना से रहित होता है (अर्थात् व्यञ्जनावग्रह ही होता है)। इसीलिए कहा- (नो चेन्न जानाति क एष शब्दादिः -इति), अर्थात् यह नहीं जानता कि यह शब्द आदि कैसा है? इस स्थिति के बाद (चरम समय में) एक समयवर्ती अर्थावग्रह होता है और इस अर्थावग्रह से पूर्व समस्त ज्ञान 'व्यअनावग्रह' है।" ----- विशेषावश्यक भाष्य -------- 367
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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