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________________ से उदगबिंदू जे णं तंसि मल्लगंसि न ढाहिहिति। होही से उदगबिंदू जे णं तं मल्लगं पवाहेहिति। एवामेव पक्खिप्पमाणेहिं अणंतेहि / पोग्गलेहिं जाहे तं वंजणं पूरियं होइ, ताहे हुं ति करेइ, नो चेव णं जाणइ के वेस सद्दाइ"। इत्यादि। [अथ केयं मल्लकदृष्टान्तेन? / मल्लकदृष्टान्तेन सा- यथानामा कश्चित् पुरुष आपाकशिरसो मल्लकं गृहीत्वा अत्रैकमुदकबिन्दं प्रक्षिपेत्, स नष्टः। अन्योऽपि प्रक्षिप्तः, सोऽपि नष्टः। अन्योऽपि प्रक्षिप्तः सोऽपि नष्टः / एवं प्रक्षिप्यमाणेषु प्रक्षिप्यमाणेषु भविष्यति स उदकबिन्दुर्यस्तं मल्लकमार्द्रतां नेष्यति / भविष्यति स उदकबिन्दुर्यस्तस्मिन् मल्लके स्थास्यति / भविष्यति स उदकबिन्दुर्यस्तं मल्लकं भरिष्यति। भविष्यति स उदकबिन्दुर्यस्तस्मिन् मल्लके न स्थास्यति। भविष्यति स उदकबिन्दुर्यस्तं मल्लकं प्लावयिष्यति। एवमेव प्रक्षिप्यमाणैरनन्तैः पुद्गलैर्यदा तद् व्यञ्जनं पूरितं भवति तदा ‘हुं' इति करोति, नो चेव जानाति क एष शब्दादिः?] इदं सूत्रं नन्दिविवरण एवेत्थं व्याख्यातम्, तद्यथा "प्रतिबोधक-मल्लकदृष्टान्ताभ्यां व्यञ्जनावग्रहस्य प्ररूपणं करिष्यामि। तत्र प्रतिबोधयतीति प्रतिबोधकः स एव दृष्टान्तस्तेन, तद्यथा नाम कश्चिदनिर्दिष्टस्वरूपः पुरुषः कञ्चिदन्यमनिर्दिष्टस्वरूपमेव पुरुषं सुप्तं सन्तं प्रतिबोधयेत् / कथम्?, इत्याह- अमुक! अमुक! इति। तत्र प्रेरकः प्रज्ञापकमेवमवादीत्- किमेकसमयप्रविष्टा इत्यादि। एवं वदन्तं प्रेरकं प्रज्ञापकएवमुक्तवान्- नो एकसमयप्रविष्टा' इत्यादि, प्रकटार्थं, यावद् नोसंख्येयसमयप्रविष्टाः पुद्गला ग्रहणमागच्छन्ति। नवरमयं प्रतिषेधः शब्दविज्ञानग्राह्यतामधिकृत्य वेदितव्यः, शब्दविज्ञानजनकत्वेनेत्यर्थः, अन्यथा संबन्धमात्रमधिकृत्य प्रथमसमयादारभ्य पुद्गला ग्रहणमागच्छन्त्येव। 'असंखेज्ज इत्यादि'1. एक वह जलबिन्दु होगा जिससे वह शराव भर जायगा। ऐसे ही एक वह जलबिन्दु होगा जो उस शराव से बाहर बह निकलेगा। इसी प्रकार (शराव पर जलबिन्दु की तरह) कर्णेन्द्रियपर शब्दयोग्य अनन्त पुद्गलों के बारंबार निरन्तर गिराते-गिराते जब वह व्यअन (इन्द्रिय अथवा उपकरणेन्द्रिय और पुद्गलों का सम्बन्ध) पूर्ण हो जाता है यानी भर जाता है, तब वह श्रोता ‘हुं' ऐसा करता है यानी अर्थावग्रह से शब्द आदि का ग्रहण करता है, फिर भी नहीं जानता कि यह शब्द आदि कैसा है व किस का है? (तात्पर्य है कि अर्थावग्रह से पूर्व का सामान्यमात्रग्राही ज्ञान व्यञ्जनावग्रह है।) इस (नन्दी) सूत्र (का उद्धरण है, उस) के 'विवरण' (नन्दीसूत्र-वृत्ति) में इस प्रकार व्याख्यान किया गया है “प्रतिबोधक व मल्लक (-इन दो) दृष्टान्तों से व्यअनावग्रह की प्ररूपणा करूंगा।जो प्रतिबोधित करता है (जगाता है), वह प्रतिबोधक (कहा जाता) है, उसी को दृष्टान्त रूप में (यहां) लिया गया है। वह इस प्रकार है- कोई -जिसका स्वरूप बताया नहीं गया ऐसा-पुरुष किसी सोये हुए अन्य पुरुष को -जिसका स्वरूप बताया नहीं गया है- जगाता है। (प्रश्न-) किस प्रकार से? (उत्तर-) बताया - 'अमुक! अमुक! (अर्थात् नाम लेकर पुकारते हुए जगाया।) इस सम्बन्ध में शिष्य ने गुरु से पूछाक्या एक समय के प्रविष्ट पुद्गल ग्रहण में आते हैं? इत्यादि। ऐसा कहते हुए शिष्य को गुरु ने इस प्रकार (उत्तर) कहा- 'एक समय के प्रविष्ट पुद्गल ग्रहण में नहीं आते' इत्यादि, व्याख्यान सुगम ही है। और (अंत में) 'न ही संख्येय समय तक के प्रविष्ट पुद्गल ही ग्रहण में आते हैं। यहां तक (उत्तर है)। किन्तु यह प्रतिषेध शब्द-विज्ञान की ग्राह्यता के विषय में ही है, अर्थात् शब्दविज्ञान के जनक रूप Ma 366 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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