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________________ इदमुक्तं भवति- अप्राप्तत्वे समानेऽपि येष्वर्थेषु ग्रहणविषये कर्मक्षयोपशमो भवति, तथा, स्वस्याऽऽत्मनो रूपाऽऽलोकमनस्कारादिसामग्र्याः सकाशादनुग्रहो भवति, तेष्वर्थेषु कर्मक्षयोपशमसद्भावात्, शेषसामग्र्यनुग्रहाच्च चक्षुषो ग्रहणसामर्थ्यं भवति। येषु त्वर्थेषु ग्रहणविषये कर्मक्षयोपशमः, शेषसामग्र्यनुग्रहश्च नास्ति, तेषु तस्य सामर्थ्याभाव इत्यर्थापत्तित एव गम्यते। तस्माद् व्यवस्थितमप्राप्यकारित्वं नयन-मनसोः। ततश्च स्पर्शन-रसन-घ्राण-श्रोत्रभेदाच्चतुर्विध एव व्यञ्जनावग्रह इति स्थितम् // इति गाथार्थः // 249 // तदेवं 'नयन-मणोवजिदियभेयाओ वंजणोग्गहो चउहा' इत्येतत् समर्थितम् / अथ प्रकृतमुच्यते 'तत्थोग्गहो दुरूवो गहणं जं होइं वंजणत्थाणं। वंजणओ य जमत्थो तेणाईए तयं वोच्छं'। [तत्रावग्रहो द्विरूपो ग्रहणं यद् भवति व्यञ्जनार्थयोः। व्यञ्जनतश्च तदर्थः, तेनादौ तकं वक्ष्ये॥] इत्यादिना ग्रन्थेन प्रतिज्ञातव्यञ्जनावग्रहस्वरूपप्रतिपादनं चेह प्रकृतम्। तस्य च व्यञ्जनावग्रहस्य स्वरूपं नन्द्यध्ययनागमसूत्रे प्रतिबोधक-मल्लकोदाहरणाभ्यां प्रतिपादितम्। तद्यथा तात्पर्य यह है- यद्यपि सभी पदार्थ समानरूप से अप्राप्त हैं, तथापि जिन पदार्थों के ग्रहण में आवरण बने हुए कर्म का (जितना या जैसा भी) क्षयोपशम होता है, इसी तरह जिन पदार्थों में रूपप्रकाश-मनोयोग आदि (ज्ञान-) सामग्री की ओर से अपना स्वयं का (जितना या जैसा भी) अनुग्रह (सहयोग) होता है, उन्हीं पदार्थों में कर्मक्षयोपशम होने तथा शेष सामग्री के अनुग्रह से नेत्र की विषय-ग्रहण-सम्बन्धी सामर्थ्य होती है। जिन पदार्थों के ग्रहण में (अपेक्षित) कर्मक्षयोपशम नहीं होता, और शेष (ज्ञान-) सामग्री का अनुग्रह नहीं होता, उन पदार्थों में उसकी सामर्थ्य नहीं होतीऐसा अर्थापत्ति से ज्ञात ही हो जाता है। इसलिए, नेत्र व मन की अप्राप्यकारिता सिद्ध हो जाती है। फलस्वरूप, स्पर्शन, रसना, घ्राण व श्रोत्र -इन (चार) के भेद से व्यञ्जनावग्रह चार प्रकार का है- यह सिद्ध होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 249 // इस प्रकार, नेत्र व मन को छोड़कर (शेष चार) इन्द्रियों के भेदों के कारण (उनका) व्यञ्जनावग्रह (भी) चार प्रकार का होता है- इस तथ्य का समर्थन किया गया। अब, प्रस्तुत ((पूर्वोक्त गाथा-193 में प्रस्तावित, प्रकरण-सम्बद्ध) विषय का निरूपण किया जा रहा है “यहां अवग्रह दो प्रकार का होता है, क्योंकि इससे व्यञ्जन व अर्थ (-इन दोनों) का ग्रहण होता है। चूंकि व्यअनावग्रह के बाद ही अर्थावग्रह होता है, इसलिए मैं उस (व्यञ्जनावग्रह) को ही पहले कहूंगा (उसका निरूपण करूंगा)।" -इत्यादि रूप से इस ग्रन्थ (पूर्वोक्त गाथा सं.-193) में जिस व्यञ्जनावग्रह के स्वरूप को प्रतिपादित करने की प्रतिज्ञा (दृढ़ कथन) की गई थी, वही यहां 'प्रकृत' (निरूपणीय) विषय है। उस व्यअनावग्रह के स्वरूप को 'नन्दी अध्ययन' (नामक आगम) सूत्र में प्रतिबोधक (जगाने वाले) और मल्लक (शराव, मिट्टी का सकोरा) -इन (दो) उदाहरणों के माध्यम से प्रतिपादित किया गया है। जैसे2a 364 ---- --- विशेषावश्यक भाष्य --
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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