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________________ तस्मात् किमिह स्थितम्?, इत्याह सामत्थाभावाओ मणो व्व विसयपरओ न गिण्हेइ। कम्मक्खओवसमओ साणुग्गहओ य सामत्थं // 249 // [संस्कृतच्छायाः- सामर्थ्याभावात् मन इव विषयपरतो न गृह्णाति। कर्मक्षयोपशमतः स्वानुग्रहतश्च सामर्थ्यम्॥] चक्षुः सिद्धान्तनिर्दिष्टनियतविषयपरिमाणात् परतो न गृह्णातीति प्रतिज्ञा / चक्षुषश्चेह कर्तृत्वं प्रक्रमाद् गम्यते, सामर्थ्याभावादिति हेतुः, मनोवदिति दृष्टान्तः। सामर्थ्याभावोऽपि नयनस्य कुतः?, इत्याह- 'कम्मक्खओ' इत्यादि। तदावरणकर्मक्षयोपशमात्, स्वानुग्रहतश्चाऽप्राप्तेष्वपि केषुचिद् योग्यदेशावस्थितेष्वर्थेषु परिच्छेदे कर्तव्ये लोचनस्य सामर्थ्यं भवति। बनी कुटी आदि को (उनकी अप्राप्ति में) आवरक हेतु नहीं माना जा सकता, क्योंकि कुटी आदि के व्यवधान होने पर भी मन (अपने ज्ञेय) मेरु आदि का ज्ञान करता है- ऐसा अनुभवसिद्ध है। "कर्मोदय के कारण, या वैसे (मर्यादित) स्वभाव के कारण मन प्रतिनियत विषयों को ही जानता हैं" -यदि ऐसा कहें, तब तो प्राप्यकारी नेत्र के लिए भी यही समाधान समान रूप से मान लेना चाहिए। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 248 // तब क्या सिद्ध हुआ (या निष्कर्ष निकला)? इस जिज्ञासा के समाधान में भाष्यकार कह रहे हैं // 249 // सामत्थाभावाओ मणो ब्व विसयपरओ न गिण्हेइ। कम्मक्खओवसमओ साणुग्गहओ य सामत्थं // . [(गाथा-अर्थ :) मन की तरह ही (नेत्र इन्द्रिय भी) सामर्थ्य के अभाव से विषय-सम्बन्धी नियत परिमाण से बाहर (अर्थात् अधिक) (विषय को) ग्रहण नहीं करती। वह सामर्थ्य या तो कर्मक्षयोपशम से, या (सहकारी सामग्री द्वारा) स्वयं के अनुगृहीत होने से प्राप्त होता है।] - व्याख्याः- सिद्धान्त (आगमों) में जो 'नियत विषय-परिमाण' बताया गया है, उससे आगे या अधिक (विषयों को नेत्र इन्द्रिय) ग्रहण नहीं करती -यह प्रतिज्ञा (अनुमान-वाक्य का आधारभूत अंश) है। गाथा में नेत्र इन्द्रिय का नाम निर्दिष्ट नहीं है, किन्तु प्रकरणानुसार यह जाना जाता है कि विषय-ग्रहण का कर्ता यहां नेत्र इन्द्रिय ही है। (उक्त अनुमान में) हेतु है- सामर्थ्य-अभाव / दृष्टान्त हैमन / (प्रश्न-) नेत्र की असमर्थता किस कारण से है? उत्तर दिया- (कर्मक्षयोपशमतः इत्यादि)। अर्थात् आवरणभूत सम्बन्धित कर्म के क्षयोपशम के कारण, और स्वानुग्रह (ज्ञानसामग्री-कृत सहयोग) के कारण (ही), किन्हीं अप्राप्त व योग्य देश में स्थित पदार्थों का ज्ञान करने में नेत्र की सामर्थ्य होती है। ---------- विशेषावश्यक भाष्य --------363 4
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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