SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तथाऽत्राऽप्यसंख्येयसमयान् यावद् गृह्यमाणानां मनोद्रव्याणां, तत्संबन्धस्य वा किमिति पक्षपातं परित्यज्य मध्यस्थैर्भूत्वाऽसौ नेष्यते?, इति किल परस्याभिप्रायः॥ इति गाथाद्वयार्थः॥२३७ // 238 // तदेवं विषयासंप्राप्तावपि भङ्ग्यन्तरेण मनसो व्यञ्जनावग्रहः किल परेण समर्थितः, सांप्रतं विषयसंप्राप्त्यापि तस्य तं समर्थयन्नाह देहादणिग्गयस्स वि सकायहिययाइयं विचिंतयओ। नेयस्स वि संबंधे वंजणमेवं पि से जुत्तं // 239 // [संस्कृतच्छाया:- देहाद् अनिर्गतस्यापि स्वकायहृदयादिकं विचिन्तयतः। ज्ञेयस्यापि सम्बन्धे व्यञ्जनमेवमपि तस्य युक्तम्॥] देहाच्छरीरादनिर्गतस्यापि मेर्वाद्यर्थमगतस्यापि स्वस्थानस्थितस्यापीत्यर्थः, स्वकाये, स्वकायस्य वा हृदयादिकमतीव संनिहितत्वादतिसंबद्धं विचिन्तयतो मनसो योऽसौ ज्ञेयेन स्वकायस्थितहृदयादिना संबन्धस्तत्प्राप्तिलक्षणस्तस्मिन्नपि ज्ञेयसंबन्धे, न केवलं'विसयमसंपत्तस्स वि संविज्जई' इत्याद्यनन्तरसमर्थितन्यायेन, इत्यपिशब्दार्थः। किम्?, इत्याह-व्यञ्जनं व्यञ्जनावग्रहः। 'से' तस्य मनसो युक्तं घटमानकं, एवमप्यनयाऽपि प्राप्यकारित्वभझ्या॥ इति गाथार्थः॥२३९॥ (माना जाता) है। उसी प्रकार, यहां (इस संदर्भ में) भी असंख्येय समयों तक गृहीत हो रहे मनोद्रव्य या उनके साथ होने वाला सम्बन्ध -इन्हें आप पक्षपात छोड़ते हुए, मध्यस्थता अपना कर (व्यञ्जनावग्रह के रूप में) क्यों नहीं स्वीकार करते? || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 237-238 // इस प्रकार, विषय से स्पृष्ट न होने पर भी अन्य कथन-रीति से परपक्ष ने मन के व्यञ्जनावग्रह का समर्थन किया, अब विषय को स्पर्श करते हुए भी उसके व्यञ्जनावग्रह का समर्थन करते हुए वह (परपक्ष) कह रहा है // 239 // देहादणिग्गयस्स वि सकायहिययाइयं विचिंतयओ। ने यस्स वि संबंधे वंजणमेवं पि से जुत्तं // . [(गाथा-अर्थ :) देह से निर्गमन नहीं करने वाले मन का भी, जब वह स्वदेहस्थित हृदय आदि का चिन्तन करता है, ज्ञेय (विषय-स्वकायस्थ हृदयादि) के साथ सम्बन्ध (प्राप्यकारित्व) होता (ही) है। इस रीति से भी उस (मन) का व्यअनावग्रह युक्तियुक्त ठहरता है।] . व्याख्याः- देह यानी शरीर से निर्गमन न करने वाले का भी, मेरु आदि पदार्थों में नहीं जाने वाले का भी, अर्थात् स्वस्थान (शरीर) में ही स्थित रहने वाले का भी। अपने शरीर में (स्थित) या अपने शरीर के (भाग व अंग) हृदय आदि चूंकि अतिसंनिकट होते हैं, इसलिए अधिक सम्बद्ध (हृदयादि) का चिन्तन करते हुए मन का स्वकायस्थित हृदय आदि ज्ञेय के साथ प्राप्ति (स्पर्श) रूप जो सम्बन्ध है, उसके होने पर भी। यहां 'भी' पद का अर्थ (रहस्य, तात्पर्य) यह है- कुछ पहले ही (गाथा- 237 में जो यह कहा गया है- विषयम् असंप्राप्तस्य अपि संविद्यते अर्थात्) विषय से असंस्पृष्ट Non---------- विशेषावश्यक भाष्य --------349 FE
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy