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________________ समएसु मणोदव्वाइं गिण्हए वंजणं च दव्वाई। भणियं संबंधो वा तेण तयं जुज्जए मणसो॥२३८॥ [संस्कृतच्छायाः- विषयम् असंप्राप्तस्यापि संविद्यते व्यञ्जनावग्रहो मनसः / यदसंख्येयसमयिक उपयोगो यच्च सर्वेषु / / समयेषु मनोद्रव्याणि गृह्णाति, व्यञ्जनं च द्रव्याणि। भणितं सम्बन्धो वा, तेन तद् युज्यते मनसः॥]. विषयं मेरुशिखरादिकं, जलाऽनलादिकं वा, असंप्राप्तस्याऽपि- अप्राप्य गृहृतोऽपीत्यर्थः। किम्?, इत्याह- संविद्यते युज्यते व्यञ्जनावग्रहो मनसः। कुतः?, इत्याह- 'जमसंखेज्जसमइओ उवओगो'। यद् यस्मात् कारणात् “च्यवमानो न जानाति" इत्यादिवचनात् सर्वोऽपि च्छद्मस्थोपयोगोऽसंख्येयैः समयैर्निर्दिष्टः सिद्धान्ते, न त्वेक-व्यादिभिः। 'जंच सव्वेसु समयेसुमणोदव्वाई गिण्हए त्ति'। यस्माच्च तेषूपयोगसंबन्धिष्वसंख्येयेषु समयेषु सर्वेष्वपि प्रत्येकमनन्तानि मनोद्रव्याणि मनोवर्गणाभ्यो गृह्णाति जीवः, द्रव्याणि च, तत्संबन्धो वा प्रागत्रैव भवद्भिर्व्यञ्जनमुक्तम्, तेन कारणेन तत् तादृशं द्रव्यं, तत्संबन्धो वा व्यञ्जनं व्यञ्जनावग्रह इति हृदयम्, युज्यते घटते मनसः। यथा हि श्रोत्रादीन्द्रियेणाऽसंख्येयान् समयान् यावद् गृह्यमाणानि शब्दादिपरिणतद्रव्याणि, तत्संबन्धो वा व्यञ्जनावग्रहः, पव्वाइ। // 238 // समएसु मणोदव्वाइं गिण्हए वंजणं च दव्वाइं। भणियं संबंधो वा तेण तयं जुज्जए मणसो // [(गाथा-अर्थ :) विषय से असंस्पृष्ट रहने वाले भी मन का व्यञ्जनावग्रह होता है, क्योंकि असंख्येय समय तक सभी समयों में उपयोग प्रवर्तमान रहता है // 237 // . उन (उपयोग-सम्बन्धी असंख्येय) समयों में मनोद्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता रहता है, और चूंकि द्रव्य या उससे होने वाले सम्बन्ध को व्यञ्जन कहा गया है, इसलिए मन का वह (व्यञ्जनावग्रह) संगत होता है // 238 // ] व्याख्याः- (विषय) अर्थात् मेरु-शिखर आदि या जल व अग्नि आदि विषय को (मन द्वारा) प्राप्त या स्पृष्ट नहीं करते हुए भी। (प्रश्न-) क्या होता है? उत्तर दिया- मन का व्यञ्जनावग्रह होता है। (प्रश्न-) किस प्रकार से (होता है)? उत्तर दिया- (यद असंख्येयसमयिकः उपयोगः)।चूंकि 'च्यवमान नहीं जानता है' इत्यादि वचनों द्वारा सिद्धान्त (आगमों) में छद्मस्थ व्यक्ति के समस्त उपयोगों को असंख्येय समयों वाला निर्दिष्ट किया गया है, न कि (मात्र) एक, दो आदि समयों वाला / (यत् सर्वेषु समयेषु मनोद्रव्याणि गृह्णाति-इति)। चूंकि उन उपयोग-सम्बन्धी सभी असंख्येय समयों में प्रत्येक समय में जीव मनोवर्गणाओं से अनन्त मनोद्रव्यों का ग्रहण करता है। और, द्रव्य एवं उसके साथ होने वाले सम्बन्ध को यहां पहले ही आपने 'व्यञ्जन' कहा है। इस कारण से वह वैसा द्रव्य या उसके साथ होने वाला सम्बन्ध 'व्यञ्जन' या व्यञ्जनावग्रह है- यह तात्पर्य है। वह मन में घटित होता है। परपक्ष का अभिप्राय यह है:- जिस प्रकार, श्रोत्र आदि इन्द्रियों द्वारा असंख्येय समय तक ग्रहण किये जा रहे जो शब्द आदि परिणत द्रव्य हैं, या उनके साथ जो सम्बन्ध होता है, वह 'व्यञ्जनावग्रह' NA 348 -------- विशेषावश्यक भाष्य --
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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