SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इह 'मदीयं मनोऽमुत्र गतम्' इत्यादिरूपो यः सुतैरुपलभ्यते स्वप्नः, स यथोपलभ्यते न तथारूप एव, स्वप्नोपलब्धमोदकस्तथाविधपरमाचार्यैरिव पर्न सत्य एव मन्तव्य इत्यर्थः। कुतः?, इत्याह- व्यभिचारात्- अन्यथात्वदर्शनात्। किंवद्- यथा न सत्यम्?, इत्याह- अलातचक्रमिव-अलातमुल्मुकं तवृत्ताकारतया आशु भ्रम्यमाणं भ्रान्तिवशादचक्रमपि चक्रतया प्रतिभासमानं यथा न सत्यम्, अचक्ररूपताया एव तत्राऽवितथत्वात्, भ्रमणोपरमे स्वभावस्थस्य तथैव दर्शनात्, एवं स्वप्नोऽपि न सत्यः, तदुपलब्धस्य मनोमेरुगमनादिकस्याऽर्थस्याऽसत्यत्वात् / तदसत्यत्वं च प्रबुद्धस्य स्वप्नोपरमे तदभावात्। तदभावश्च तदवस्थायां देहस्थस्यैव मनसोऽनुभूयमानत्वादिति // आह- ननु स्वप्नावस्थायां मेर्वादौ गत्वा जाग्रदवस्थायां निवृत्तं तद् भविष्यति, इति 'व्यभिचारात्' इत्यसिद्धो हेतुः, इत्याशङ्कयाह- 'वभिचारो येत्यादि'। यो मया व्यभिचारो हेतुत्वेनोक्तः, स चेत्थं सिद्धः। कथम्?, इत्याह- 'सदंसणमिति'। विभक्तिव्यत्ययात् स्वदर्शनादित्यर्थः। स्वस्याऽऽत्मनो मेर्वादिस्थितजिनगृहादिगतस्य दर्शनं स्वदर्शनं तस्मादिति। एतदुक्तं भवति- यथा ___ व्याख्याः- सोये हुए व्यक्तियों द्वारा 'मेरा यह मन यहां (अमूक स्थान में) गया था'- इस प्रकार का जो स्वप्न उपलब्ध (दिखाई) पड़ता है, वह जिस रूप में उपलब्ध होता है (वस्तुतः) उसी रूप में नहीं होता, अर्थात् स्वप्न में मोदक (लड्डू) जिस रूप में उपलब्ध होता है, वह पूर्वपक्षी आचार्यों द्वारा भी असद् ही माना जाता है। (प्रश्न-) कैसे? उत्तर दिया- व्यभिचारात्। वह अन्य रूप में ही दृष्टिगोचर होता है। (प्रश्न-) किसकी तरह वह असद् है? उत्तर दिया- (अलातचक्रमिव)। जैसे अलात (जलती लकड़ी, या मशाल) को गोलाकार में शीघ्रतया घुमाया जाय तो, यद्यपि वह चक्राकार नहीं होती, फिर भी भ्रान्तिवश चक्रवत् प्रतिभासित होती है, अतः (चक्राकार रूप में) वह सत्य नहीं होती, अपितु चक्राकार-विपरीत रूप में ही वह सत्य होती है, क्योंकि भ्रमण (गोलाकार घुमाने की क्रिया) को बन्द करने पर वह स्वाभाविक रूप में अ-चक्राकार रूप में ही (स्पष्ट) दिखाई देती है। इसी प्रकार, स्वप्न (में दृष्ट वस्तु) भी सत्य नहीं होती, क्योंकि (स्वप्न में) मेरु आदि में मन के जाने आदि (घटित) पदार्थ असद् रूप (ही) होते हैं। उनकी असत्यता इसलिए (स्पष्ट) है क्योंकि स्वप्न टूटने पर उनका सद्भाव नहीं (ही) रहता / (इसी प्रकार) उस (मन के मेरु आदि में गमन) का भी अभाव ही होता है, क्योंकि जागने पर मन की देह में ही स्थित रहने की अनुभूति होती है। (शंका-) (ऐसा भी तो हो सकता है कि) स्वप्न की स्थिति में मन मेरु आदि में जाकर, जागने की स्थिति में लौट आता (हो, और देहस्थित हो जाता) हो? तब आपने जो 'व्यभिचार' (विपरीत रूप में उपलब्ध होना -यह) हेतु दिया है, वह 'असिद्ध' हो जाता है। उक्त आशंका को दृष्टि में रखकर (भाष्यकार ने) उत्तर दिया- (व्यभिचारश्च -इत्यादि)। जो हमने 'व्यभिचार' हेतु दिया है, (वह असिद्ध नहीं, अपितु) इस प्रकार सिद्ध होता है। किस प्रकार? उत्तर दिया- (स्वदर्शनम्)। (प्रयोजनवश पदों में प्रायः) विभक्ति परिवर्तन (किया जाता है, जिस) के कारण अर्थ होगा-स्वदर्शन के आधार पर। 'स्व' अपने (शरीरादि) का (भी तो वैसा) दर्शन होता है, इसलिए / 'स्वदर्शन अर्थात् स्वयं अपने को, अपनी आत्मा को मेरु आदि में स्थित जिन-गृहों आदि में जाता हुआ देखा जाता है, Ma 330 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy