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________________ न च जीवादिक एवाऽन्यः कोऽपि तयोर्हेतुः, तस्य सदावस्थितत्वेन तत एव सर्वदा भवनाऽभवनप्रसङ्गात्। एवमन्यदपि -- सुधिया स्वबुद्ध्या समाधानमिह वाच्यम्, इत्यलमतिविस्तरेण / तस्मादुक्तयुक्तिसिद्धं पुद्गलमयं द्रव्यमनो मन्तुः स्वयं कुर्यादनुग्रहोपघातौ, ज्ञेयकृतौ तु तौ मनसो न स्त एव, इति न तत्प्राप्यकारि // इति गाथार्थः // 223 // आह- ननु जाग्रदवस्थयां मा भूद् मनसो विषयप्राप्तिः, स्वापावस्थायां तु भवत्वसौ, अनुभवसिद्धत्वात्, तथाहि- 'अमुत्र मेरुशिखरादिगतजिनायतनादौ मदीयं मनो गतम्' इति सुप्तैः स्वप्नेऽनभयत एव, तथा च 'गंतं नेएण मणो संबज्झइ जग्गओ व सिमिणे वा' इति मया प्रागेवोक्तम्, इत्याशङ्कय स्वप्नेऽपि मनसः प्राप्यकारितामपाकर्तुमाह सिमिणो न तहारूवो वभिचाराओ अलायचक्कं व। वभिचारो य सदसणमुवघायाणुग्गहाभावा॥२२४॥ [संस्कृतच्छाया:- स्वप्नो न तथारूपो व्यभिचाराद् अलातचक्रमिव। व्यभिचारश्च स्वदर्शनमुपघातानुग्रहाभावात् // ] (शंका-) उक्त अनुग्रह व उपघात में जीव आदि ही कोई पृथक् कारण हो (सकता है, ऐसा क्यों न मान लें)। (उत्तर-) यह भी मानना ठीक नहीं, क्योंकि जीव तो सदा अवस्थित रहता है, इसलिए उससे सदा अनुग्रह या उपघात होना चाहिए या कभी नहीं होना चाहिए। इसी प्रकार, अन्य समाधान भी यहां अपनी बुद्धि से कर लेना चाहिए। अब अधिक और कुछ कहना अपेक्षित नहीं रह गया है। इसलिए पूर्वोक्त युक्तियों से यह सिद्ध हो जाता है कि पुद्गलमय द्रव्यमन ही स्वयं ज्ञाता का अनुग्रह व उपघात करता है, किन्तु ज्ञेय पदार्थ द्वारा मन के अनुग्रह व उपघात नहीं किये जाते, अतः वह (मन) प्राप्यकारी नहीं है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 223 // (स्वप्न में भी मन का बाह्य गमन नहीं) :- (पूर्वपक्ष की ओर से) शंका- "जागृत अवस्था में भले ही मन (अपने ज्ञेय) विषय को प्राप्त (स्पृष्ट) नहीं करे, किन्तु सुप्त अवस्था में तो यह (विषय से स्पृष्ट) हो(ही सकता है, क्योंकि ऐसा अनुभवसिद्ध (भी) है। जैसे- 'मेरु-शिखर आदि में स्थित इन जिनालयों में मेरा मन गया (हुआ) था -ऐसा अनुभव सोये हुए लोगों को होता ही है, और ऐसा (पूर्व में). 'गत्वा ज्ञेयेन मनः सम्बद्ध्यते, जागृतः स्वप्ने वा' इत्यादि (गाथा-213) पहले ही हम कह भी चुके हैं"। इस शंका को मन को रख * कर (अब भाष्यकार) स्वप्न में भी, मन की प्राप्यकारिता के निराकरण हेतु कथन कर रहे हैं // 224 // सिमिणो न तहारूवो वभिचाराओ अलायचक्कं व / वभिचारो य सदंसणमुवघायाणुग्गहाभावा || [(गाथा-अर्थ :) स्वप्न (वस्तुतः जैसा दिखाई देता है,) वैसा नहीं होता है, क्योंकि अलातचक्र की तरह (जो दिखाई पड़ता है, उस स्वरूप का) वहां व्यभिचार (अभाव ही) होता है। व्यभिचार इसलिए है, क्योंकि (न केवल मन को, अपितु) स्वयं (अपने शरीर) को भी (वहां गया हुआ स्वप्न में) देखता है, और (वहां जाने से होने वाले) उपघात व अनुग्रह का सद्भाव भी वहां नहीं होता।] Via---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 329
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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