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________________ तस्य तयोरस्माभिर्निषिध्यमानत्वादिति भावः। जीवस्याऽपि तौ द्रव्यमनःकृतौ किमिति न निषिध्येते?, इत्याह- 'जमणुग्गहो इत्यादि'। यद्यस्मात्कारंपादनुग्रहोपघातौ जीवानां पुद्गलेभ्य इति युक्तमेव, इष्टाऽनिष्टशब्द-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शोपभोगादिषु तथादर्शनेनाऽस्याऽर्थस्य निषेद्धमशक्यत्वादित्यर्थः॥ आह- ननु शब्दादय इष्टाऽनिष्टपुद्गलात्मका इति प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धत्वात् प्रतीमः, द्रव्यमनस्तु यदिदं किमपि भवाद्भिरुक्षुष्यते, तदिष्टाऽनिष्टपुद्गलमयमस्तीति कथं श्रद्दध्मः? इति। अत्रोच्यते- योगिनस्तावदिदं प्रत्यक्षत एव पश्यन्ति, अर्वागदर्शिनस्त्वनुमानात, तथाहि- यदन्तरेण यद् नोपपद्यते तद्दर्शनात् तदस्तीति प्रतिपत्तव्यम्, यथा स्फोटदर्शनाद् दहनस्य दाहिका शक्तिः, नोपपद्यते चेष्टाऽनिष्टपुद्गलसंघातात्मकद्रव्यमनोव्यतिरेकेण जन्तूनामिष्टाऽनिष्टवस्तुचिन्तने समुपलब्धौ वदनप्रसन्नतादेहदौर्बल्याद्यनुग्रहोपघातौ, ततस्तदन्यथानुपपत्तेरस्ति यथोक्तरूपं द्रव्यमनः। था, किन्तु प्राकृत में प्रायः लिङ्ग परिवर्तित भी हो जाता है, इसलिए 'सो' यह पद पुंलिङ्ग में प्रयुक्त हुआ है -यह तात्पर्य है)। पूर्व में एवं आगे के लिए भी (लिङ्ग-परिवर्तन के उदाहरण हैं, इस दृष्टि से) इस नियम को हृदयंगम कर लेना चाहिए / पुनः वह द्रव्यमन इष्ट-अनिष्ट पुद्गल-समूह से रचित होने से शुभाशुभ कर्म-वशीभूत होकर स्वयं अपने से ज्ञाता का अनुग्रह या उपघात करे तो क्या दोष है? हम इसका निषेध नहीं करते। अर्थात् द्रव्य मन में ज्ञेय पदार्थ से होने वाले उन (अनुग्रह व उपघात) का ही निषेध करते हैं। (शंका-) द्रव्य मन से जीव का भी अनुग्रह या उपघात होता है -इसका क्या निषेध नही करते? उत्तर दिया- (यदनुग्रहोपघातौ, इत्यादि)। क्योंकि पुद्गलों द्वारा जीव के अनुग्रह व उपघात का होना युक्तियुक्त ही है, अर्थात् इष्ट-अनिष्ट शब्द-रूप-रस-गंध व स्पर्श के उपभोग आदि में वैसा (अनुग्रहव उपघात का होना) देखा जाता है, इसलिए इसका निषेध नहीं किया जा स - (शंका-) शब्द आदि इष्ट या अनिष्ट पुद्गलात्मक (समूह) होते हैं- यह तो प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध (ही) है. अतः इस पर तो हम विश्वास कर सकते हैं. किन्त द्रव्यमन स्वरूप आप उद्घोषित कर रहे हैं, वह भी इष्ट या अनिष्ट पुद्गलों का समूह रूप है- इस पर कैसे श्रद्धा (विश्वास) किया जाय? इसका उत्तर दिया जा रहा है- योगी जन तो इस (द्रव्यमन) को प्रत्यक्ष देखते ही हैं, छद्मस्थ जन भी इसे अनुमान से जान (सक)ते हैं। जैसे कि 'जिसके बिना जो उत्पन्न (निष्पन्न) नहीं होता, उस (उपपन्न) के दृष्टिगोचर होने से उसका सद्भाव है- ऐसा मानना उचित है, जैसे फोड़ा (फफोला) विना जलन के नहीं होता, अतः फोड़ा देखकर अग्नि में दहन शक्ति है (ऐसा विश्वास, अनुमान से किया जाता है)। उसी तरह, प्राणियों द्वारा इष्ट-अनिष्ट वस्तु का चिन्तन करते समय, जो उनमें मुख-प्रसन्नता या देहदुर्बलता आदि के रूप में अनुग्रह या उपघात होते दिखाई पड़ते हैं, वे इष्ट या अनिष्ट पुद्गल-समूहात्मक द्रव्यमन के विना उपपन्न (निष्पन्न, संगत) नहीं हो सकते, इसलिए 'अन्यथानुपपत्ति' हेतु से द्रव्यमन का उक्त स्वरूप माना जा रहा है। कछ ---- ----- विशेषावश्यक भाष्य -------- 327 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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