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________________ इह न शरीराद् 'निर्गन्तुं'(निर्गत्य) द्रव्यमनो मेदिकं ज्ञेयमर्थमालम्बते गृह्णाति, नापि तच्छरीरस्थमेव / आगसिउंति'। 'आक्रष्टुं'(आकृष्य) हठात् समाकृष्याऽऽत्मनः समीपमानीय ज्ञेयमालम्बत इति, नियमोऽस्माभिर्भुजमुत्क्षिप्य विधीयते- प्राप्यकारीदं न भवतीति नियम्यत इति तात्पर्यम्। 'तण्णेयकया जेऽणुग्गहोवघाय त्ति' / यौ च तज्ज्ञेयकृतौ- तच्च तज्ज्ञेयं च तज्ज्ञेयं तत्कृतौ, मनसोऽनुग्रहोपघातौ परैरिष्येते, तौ तस्य न स्त एवेति च नियम्यते // इति गाथार्थः॥२२२ // किं पुनर्न नियम्यते? इत्याह सो पुण सयमुवघायणमणुग्गहं वा करेज को दोसो?। जमणुग्गहोवघाया जीवाणं पोग्गलेहिं तो // 223 // [ संस्कृतच्छाया:- तत्पुनः स्वयमुपघातानुग्रहौ वा कुर्यात् को दोषः? यदनुग्रहोपघातौ जीवानां पुद्गलेभ्यः॥] "से' इति प्राकृतत्वात् पुंलिङ्गनिर्देशः, एवं पूर्वमुत्तरत्राऽपि च यथासंभवं द्रष्टव्यम्। तद् द्रव्यमनः पुनः स्वयमात्मनम शुभाऽशुभकर्मवशत इष्टाऽनिष्टपुद्गलसंघातघटितत्वादनुग्रहोपघातौ मन्तुः कुर्यात्, को दोषः? न वयं तत्र निषेद्धारः, ज्ञेयकृतयोरेव व्याख्याः- "द्रव्यमन शरीर से (निर्गत्य) निकल कर, मेरु आदि ज्ञेय पदार्थों का आलम्बन या ग्रहण नहीं करता, और न ही वह शरीर में स्थित रहते हुए ही (आकृष्य) (ज्ञेय विषय को) बलपूर्वक खींच कर, अपने समीप लाकर ज्ञेय पदार्थ का आलम्बन (ग्रहण) करता है” -इस नियम (सिद्धान्त) को हम अपनी भुजा उठा कर प्रस्तुत कर रहे हैं। तात्पर्य यह है कि 'वह मन प्राप्यकारी नहीं है' इसे ही हम (अंतिम) नियम (मत, सिद्धान्त) मानते हैं। (तज्ज्ञेयकृतौ यौ अनुग्रहोपघातौ इति) -द्रव्यमन और उसके ज्ञेय (मेरु पर्वपादि) द्वारा उस में होने वाले अनुग्रह व उपघात को जैसा 'पर' (पूर्वपक्षी) मानता है, वे उस (द्रव्यमन) में कभी नहीं होते- वह भी हमारा नियम (अंतिम सिद्धान्त) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 222 // (शंका-) तो फिर किस मत को नकार रहे हैं? (इस शंका को दृष्टि में रख कर भाष्यकार) इसका उत्तर कह रहे हैं // 223 // सो पुण सयमुवघायणमणुग्गहं वा करेज को दोसो?। जमणुग्गहोवघाया जीवाणं पोग्गले हिं तो // [(गाथा-अर्थ :) पुनः वह (द्रव्यमन) स्वयं (ज्ञाता पर) उपघात या अनुग्रह करे (इसे हम नकारते नहीं हैं, और फिर) इसमें दोष भी आखिर क्या है? क्योंकि पुद्गलों से जीवों के अनुग्रह या उपघात (तो) होते (ही) हैं।] व्याख्याः - गाथा में प्रयुक्त 'सो' (वह) यह पद प्राकृत होने से पुंलिङ्ग में यहां प्रयुक्त हुआ है (नपुंसक लिङ्ग वाला द्रव्य मन यहां विशेषण है, अतः इसे वस्तुतः नपुंसक में ही प्रयुक्त होना चाहिए Via 326 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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