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________________ आह- नन्वलौकिकमिदं, यद्- द्रव्यमनसा जीवस्य देहोपचय-दौर्बल्यादिरूपावनुग्रहोपघातौ क्रियेते, तथाप्रतीतेरेवाभावात्, इत्याशङ्कयाह इट्ठाणिट्ठाहारब्भवहारे होन्ति पुट्ठि-हाणीओ। जह, तह मणसो ताओ पोग्गलगुणउ त्ति को दोसो? // 221 // [संस्कृतच्छाया:- इष्टानिष्टाहाराभ्यवहारे भवतः पुष्टिहानी। यथा, तथा मनसस्ते पुद्गलगुणतः इति को दोषः? // ] .. ननु किमिहाऽलौकिकम्?, यतो भवतो लोकस्य च सबालगोपालस्य तावत्प्रतीतमिदं यदुत- इष्टो मनोऽभिरुचितो य आहारस्तस्याऽभ्यवहारे जन्तूनां शरीरस्य पुष्टिर्भवति, यस्त्वनिष्टोऽनभिमत आहारस्तस्याऽभ्यवहारे हानिर्भवतीति / ततश्च 'जह त्ति'। यथा इष्टाऽनिष्टाहाराभ्यवहारे तत्पुद्गलानुभावाद् पुष्टि-हानी भवतः, 'तह त्ति'। तथा यदि द्रव्यमनोलक्षणात् मनसोऽपि सकाशात् 'ताउत्ति'। ते पुष्टि-हानी पुद्गलगुणतः पुद्गलानुभावाद् भवतः, तर्हि को दोषः? न कश्चिदित्यर्थः। __ अब पूर्वपक्षी (पुनः दोषारोपण करते हुए) कह रहा है- आपका कहना तो अलौकिक (ही) है (अर्थात् लौकिक प्रतीति से विरुद्ध है), क्योंकि (आपके कथनानुसार) जीव में होने वाले शारीरिक क्षीणता व दुर्बलता आदि जो अनुग्रह व उपघात हैं, वे द्रव्य मन द्वारा किये जाते हैं, किन्तु ऐसी प्रतीति ही नहीं होती- पूर्वपक्षी की ओर से संभावित इस आशंका को दृष्टिगत रख कर भाष्यकार (समाधान) कह रहे हैं // 221 // इट्ठाणिट्ठाहारब्भवहारे होन्ति पुट्ठि-हाणीओ। . . जह, तह मणसो ताओ पोग्गलगुणउत्ति को दोसो? | [(गाथा-अर्थ :) जैसे इष्ट-अनिष्ट आहार के खाने से (शरीर की) पुष्टि या क्षति (दुर्बलता आदि) होती है, वैसे ही, चूंकि (द्रव्य) मन (भी) पौद्गलिक गुण वाला होता है, अतः उसकी ओर से भी वे (पुष्टि या हानि) होती हो तो इसमें क्या दोष है?] ___ व्याख्याः- (शंका-) (हमारे कथन में) अलौकिक-लोकविरुद्ध होने जैसी क्या बात है? क्योंकि आपको एवं बाल-गोपाल आदि सारे लोगों को यह प्रतीति होती ही है कि मनमाफिक अभीष्ट जो आहार होता है, उसके सेवन में प्राणियों के शरीर की पुष्टि होती है, और जो अनिष्ट व इच्छाविरुद्ध जो आहार होता है, उसके सेवन से (शरीर की) हानि होती है। इसलिए- (यथा इति)। जैसे इष्ट या अनिष्ट आहार के सेवन से (इष्ट या अनिष्ट) पुद्गलों के अनुभाव (शुभाशुभ परिणति) से उस (जीवात्मा) की (शारीरिक) पुष्टि या हानि होती है, (तथा इति), वैसे ही यदि द्रव्यमन रूप मन की ओर से भी (ते इति), वे पुष्टि या हानि उनके पौद्गलिक गुण (पौद्गलिक परिणति) के कारण होती हों, तो फिर इसमें दोष क्या है? (कोई दोष नहीं है अर्थात् मन की अप्राप्यकारिता वाली हमारी मान्यता में आपके आहारजनित पुष्टि या हानि वाले कथन से कोई फर्क नहीं पड़ता)। Ma 324 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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