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________________ यदि नाम द्रव्यमनो मनस्त्वपरिणतानिष्टपुद्गलसमूहरूपमतिशयबलिष्ठमिति कृत्वा शोकादिसमुद्भूतपीडया जीवं कर्मतापन्नं देहदौर्बल्याद्यापादनेन पीडयेत्, हृन्निरुद्धवायुवत्- हृदयदेशाश्रितनिबिडमरुद्ग्रन्थिवदित्यर्थः। यदि च तस्यैव द्रव्यमनसो मनस्त्वपरिणतेष्टपुद्गलसंघातस्वरूपस्याऽनुग्रहेण जीवस्य हर्षादयो भवेयुः, तर्हि ज्ञेयस्य चिन्तनीयमेर्वादेर्मनसोऽनुग्रहोपघातकरणे किमायातम्? इदमत्र हृदयम्- मनस्त्वपरिणतानिष्टपुद्गलनिचयरूपं द्रव्यमनोऽनिष्टचिन्ताप्रवर्तनेन जीवस्य देहदौर्बल्याद्यापत्त्या हृनिरुद्धवायुवदुपघातं जनयति, तदेव च शुभपुद्गलपिण्डरूपं तस्याऽनुकूलचिन्ताजनकत्वेन हर्षाद्यभिनिवृत्त्या भेषजवदनुग्रहं विधत्त इति। अतो जीवास्यैतावानुग्रहोपघातौ द्रव्यमनः करोति, न तु मन्यमानमेर्वादिकं ज्ञेयं मनसः किमप्युपकल्पयति। अतो द्रव्यमनसः सकाशादात्मन एवानुग्रहोपघातसद्भावात्, मनसस्तु ज्ञेयात् तद्गन्धस्याऽप्यभावाद् मस्तकाघातविह्वलीभूतेनेवाऽसंबद्धभाषिणा परेण हेतोरसिद्धिरुद्भाविता॥ इति गाथार्थः // 220 // व्याख्याः- द्रव्यमन 'मन' रूप में परिणत अनिष्ट पुद्गलों का समूह रूप होता है और अत्यन्त बलिष्ठ होता है। इस दृष्टि से यदि वह द्रव्यमन शोक आदि से उत्पन्न पीड़ा के द्वारा शारीरिक दुर्बलता को उत्पन्न कर, हृदय में रुकी हुई वायु की तरह, अर्थात् हृदय-स्थल पर घनीभूत हुई वायुग्रन्थि (हवा के गोले) की तरह, जीवात्मा को पीड़ित करे (तो यह सम्भव है, ऐसा हो सकता है)। और वही द्रव्य मन (जब) मन रूप में परिणत इष्ट पुद्गल-समूह रूप होता है, (तब) उसी के अनुग्रह से जीव को हर्ष आदि उत्पन्न हों, तो (ऐसा होने पर भी) ज्ञेय (ज्ञान के विषयभूत) व चिन्तन के केन्द्र मेरु आदि द्वारा मन का क्या अनुग्रह या उपघात किया गया?.(अर्थात् चिन्तनीय विषय ने तो मन कोई उपघात या अनुग्रह किया नहीं, तब मन की अप्राप्यकारिता पर क्या आंच आई?) तात्पर्य यह है- (जब) द्रव्य मन 'मन' रूप से परिणत अनिष्ट (अशुभ) पुद्गल-समूह रूप होता है, (तब वह) अनिष्ट चिन्तन की प्रवृत्ति करते हुए जीव की शारीरिक दुर्बलता को उत्पन्न कर, हृदय में रूकी हुई वायु की तरह (जीवात्मा का) उपघात करता है, उसी तरह (जब वह) शुभ पुद्गलसमूह रूप (होता है तो) वही द्रव्य मन चिन्तन की प्रवृत्ति के माध्यम से हर्ष आदि उत्पन्न कर, औषधि की तरह (जीवात्मा का) अनुग्रह करते है। इसलिए (वास्तविकता यह है कि) जीवात्मा पर इन अनुग्रह व उपघात को द्रव्यमन करता है, किन्तु चिन्तन के विषयभूत मेरु आदि ज्ञेय (ज्ञान-विषय) पदार्थ मन का कुछ भी (अनुग्रह या उपघात) नहीं करते। अतः द्रव्यमन की ओर से (अनुग्रह या उपघात -इनमें से) किसी (के होने) की गंध भी नहीं है। इसलिए 'पर' (पूर्वपक्षी) मस्तक पर चोट लगने से व्याकुल हुए व्यक्ति की तरह असम्बद्ध प्रलाप कर रहा है और (मन में अनुग्रह आदि अभाव का होना -इस) हेतु' की असिद्धि उद्भावित कर रहा है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||220 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 323 2
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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