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________________ इदमुक्तं भवति- जल-घृत-नीलवसन-वनस्पतीन्दुमण्डलाद्यवलोकनेन नयनस्य परमाश्वासलक्षणोऽनुग्रहः समीक्ष्यते, सूरसितभित्त्यादिदर्शने तु जलविगलनादिरूप उपघात: संदृश्यत इति / अतः किमुच्यते- 'जमणुग्गहाइसुण्णं ति' // इति गाथार्थः // 209 // अत्रोत्तरमाह डजेज पाविउं रविकराइणा फरिसणं व को दोसो?। मणेज अणुग्गहं पिव उवघायाभावओ सोम्मं // 210 // [संस्कृतच्छाया:- दह्येत प्राप्य रविकरादिना स्पर्शनमिव को दोषः? मन्येतानुग्रहमिव उपघाताभावतः सौम्यम्॥] अयमत्र भावार्थ:- अस्मदभिप्रायाऽनभिज्ञोऽप्रस्तुताभिधायी परः, न हि वयमेतद् ब्रूमो यदुत- चक्षुषः कुतोऽपि वस्तुनः सकाशात् कदाचित् सर्वथैवानुग्रहोपाघातौ न भवतः। ततो रविकरादिना दाहाद्यात्मकेनोपघातवस्तुना परिच्छेदानन्तरं (शंकाकार के कथन का) तात्पर्य यह है कि जल, घृत, नीलवस्त्र (आसमानी रंग का वस्त्र), वनस्पति, चन्द्रमण्डल आदि को देखने से आंखों को परम संतोष (शान्ति) रूप अनुग्रह का होना देखा जाता है, किन्तु सूर्य, व श्वेत (चमचमाती, चिकनी) दीवार आदि को देखने पर आंखों में पानी आने आदि रूप में उपघात (प्रतिकूल वेदन) होता होता दिखाई पड़ता है। इसलिए आपने कैसे कहा कि 'चूंकि (नेत्र) अनुग्रहादिशून्य है, इसलिए मन की तरह (ही) नेत्र भी अप्राप्यकारी है?' // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 209 // अब (नेत्र के अनुग्रहादियुक्त होने के आरोप का भाष्यकार) उत्तर दे रहे हैं 210 // डज्जेज्ज पाविउं रविकराइणा फरिसणं व को दोसो?| मणेज अणुग्गहं पिव उवघायाभावओ सोम्मं // [ (गाथा-अर्थ :) स्पर्शन (त्वचा) इंद्रिय की तरह (यदि) सूर्य-किरणें आदि नेत्र को प्राप्त (स्पृष्ट) करते हुए (दाहादि उत्पन्न कर उसे) जलाने लगें तो (हमारे मत में) क्या दोष है? जो सौम्य (शीतल आदि पदार्थ) है, उससे (किसी प्रकार का) उपघात न होने से (नेत्र को) अनुग्रह (अनुकूल वेदन) जैसा होना मान लें (तो भी क्या दोष है? अर्थात् नेत्र की अप्राप्यकारिता की मान्यता में कोई दोष नहीं आता)] __व्याख्याः - यहां (समस्त गाथा का) भावार्थ इस प्रकार है- (वस्तुतः) 'पर' (विरोधी पक्ष) ने हमारे कथन के अभिप्राय को (ही) नहीं समझा है और वह अप्रस्तुत (अप्रासंगिक) कथन कर रहा है। हम ऐसा तो नहीं कहते कि नेत्र इन्द्रिय को किसी भी वस्तु से, कभी भी, किसी भी रूप में उपघात नहीं होता। अतः, रवि-किरणों को देखने (जानने) के बाद, जब ज्ञाता (सूर्य-किरणों को) चिरकाल तक देखता (ही) रहे तो सूर्य-किरणें आदि जो पदार्थ दाहक रूप से (नेत्रेन्द्रिय) का उपघात करने वाले ANS 306 ---- -- विशेषावश्यक भाष्य ---- ------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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