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________________ विः / अप्राप्तोऽसंबद्धोऽसंश्लिष्टो विषयो ग्राह्यवस्तुरूपो यस्य तदप्राप्तविषयं लोचनम्, अप्राप्यकारीत्यर्थः, इति प्रतिज्ञा / कुतः?, इत्याह- यद् यस्मादनुग्रहादिशून्यम्, आदिशब्दादुपघातपरिग्रहः- ग्राह्यवस्तुकृतानुग्रहोपघातशून्यत्वादित्यर्थः, अयं च हेतुः / मनोवदिति दृष्टान्तः। यदि हि लोचनं ग्राह्यवस्तुना सह संबध्य तत्परिच्छेदं कुर्यात्, तदाऽग्न्यादिदर्शने स्पर्शनस्येव दाहाद्युपघातः स्यात्; कोमलतुल्याद्यवलोकने त्वनुग्रहो भवेत्, न चैवम्, तस्मादप्राप्यकारि लोचनमिति भावः। मनस्यप्राप्यकारित्वं परस्याऽसिद्धम्, इति कथं तस्य दृष्टान्तत्वेनोपन्यासः? इति चेत् / सत्यम्, किन्तु वक्ष्यमाणयुक्तिभिस्तत्र तत् सिद्धम्, इति निश्चित्य तस्येह दृष्टान्तत्वेन प्रदर्शनम्, इत्यदोषः। अथ परो हेतोरसिद्धतामुद्भावयन्नाह- 'जल-सूरेत्यादि'। आदिशब्दः, आलोकशब्दश्च प्रत्येकमभिसंबध्यते। ततश्च जलादीनामालोके लोचनस्याऽनुग्रहो दृश्यते, सूरादीनां त्वालोके उपघात इति। तो 'अनुग्रहादिशून्यत्वात्' इत्यसिद्धो हेतुरित्यर्थः। व्याख्याः- (अप्राप्तविषयं लोचनम्)- विषय यानी ग्राह्यवस्तु का रूप, जिस (इन्द्रिय) के लिए अप्राप्त, असम्बद्ध या असंश्रुिष्ट रहता है, उस (इन्द्रिय) को 'अप्राप्तविषय' कहा जाता है। लोचन (नेत्र) इन्द्रिय (भी) 'अप्राप्तविषय' है, अर्थात् वह 'अप्राप्यकारी है- यह ग्रन्थकार की प्रतिज्ञा (स्थापित करने योग्य ‘पक्ष' या स्वमत) है। यह कैसे? (अर्थात् इस प्रतिज्ञा के समर्थन में हेतु क्या है?) उत्तर दिया(यत्) इत्यादि / चूंकि (वह) 'अनुग्रह' आदि से शून्य है। 'आदि' पद से 'उपघात' (का कथन) भी गृहीत है। नेत्र इन्द्रिय अपने ग्राह्य (विषय) वस्तु के कारण होने वाले अनुग्रह व उपघात से शून्य है, इसलिए (नेत्र अप्राप्यकारी है)- यह अभिप्राय है। यहां (अनुग्रह व उपघात से शून्य होना) यही हेतु है। मन की तरह -यह दृष्टान्त (उदाहरण कथन) है। तात्पर्य यह है कि यदि नेत्र इन्द्रिय प्राप्त वस्तु के साथ सम्बद्ध होकर उसका ज्ञान करती होती, तो अग्नि आदि के दर्शन में, स्पर्शन (त्वचा) इन्द्रिय की तरह ही, उसके दाह (जल जाना) आदि उपघात होता, और कोमल जैसी वस्तु को देखने पर अनुग्रह (अनुकूल वेदन) होता। किन्तु ऐसी स्थिति नहीं होती, इसलिए नेत्र इन्द्रिय अप्राप्यकारी है। ___ (शंका-) मन की अप्राप्यकारिता (ही) प्रतिपक्ष के मत में सिद्ध नहीं है, तब उसे (नेत्र की प्राप्यकारिता में) दृष्टान्त रूप से उपस्थापित कैसे किया है? (उत्तर-) (आपका कथन) सही है, किन्तु वक्ष्यमाण (आगे कही जाने वाली) युक्तियों के द्वारा वहां उस. (मन) की वह (अप्राप्यकारिता) सिद्ध हो जाती है- ऐसा निश्चित (मान) कर, उस (मन) को दृष्टान्तस्वरूप से उपस्थापित किया गया है, अतः (हमारे कथन में, प्रतिज्ञा में) कोई दोष नहीं है। . अब पूर्वपक्षी (पूर्वप्रस्तुत 'प्रतिज्ञा' में प्रयुक्त) हेतु की असिद्धता ('असिद्ध' दोष) की उद्भावना करते हुए कह रहा है- (जलसूरालोकादिषु इत्यादि) (जलसूरालोकादिषु -इस समस्त पद में आये हुए) आदि व आलोक -ये दोनों पद प्रत्येक (अर्थात् जल व सूर) के साथ सम्बद्ध हैं। अतः (समस्त पद का अर्थ हुआ-) जल आदि के अवलोकन से (नेत्र का) अनुग्रह होता है, तथा सूर (सूर्य) आदि (तेजोयुक्त पदार्थों) के अवलोकन से नेत्र का उपघात होता है। इस प्रकार 'अनुग्रहादिशून्य' होना - यह हेतु (नेत्र में) असिद्ध (दोष से ग्रस्त) है। ----- विशेषावश्यक भाष्य --------305 32
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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