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________________ चशब्दो वाशब्दो वा पातनायाम्, सा च कृतैव। तत्र यद्येकस्मिन्नेव चरमसमये ज्ञानमभ्युपगम्यते, तदाऽसौ सर्वसमयसमुदायापेक्षया तावदेकदेश एव। ततश्चानेनैकदेशेनोने शेषसमयसमुदाये यदभूतं ज्ञानं तत्कथं हन्त! चरमसमयलक्षणे देशेऽकस्मादेव सकलमखण्डं भवेत्, अप्रमाणोपपन्नत्वात्?। तथाहि- नैकस्मिंश्चरमशब्दादिद्रव्योपादानसमये ज्ञानमुपजायते, एकसमयमात्रशब्दादिद्रव्योपादानात्, व्यञ्जनावग्रहाऽऽद्यसमयवदिति। . स्यादेतत्, चरमसमयेऽर्थावग्रहज्ञानमनुभवप्रत्यक्षेणाऽप्यनुभूयते, ततः प्रत्यक्षविरोधिनीयं प्रतिज्ञा। तदयुक्तम्, 'चरमसमय एव समग्रं ज्ञानमुत्पद्यते' इतिभवत्प्रतिज्ञातस्यैव प्रत्यक्षविरोधात्, चरमतन्तौ समस्तपटोत्पादवचनवत् / तथा, सर्वेष्वपि शब्दादिद्रव्यसंबन्धसमयेषु ज्ञानमस्तीत्यादिपूर्वोक्तानुमानविरोधश्च भवत्पक्षस्य // इति गाथार्थः // 20 // चरम समय में जो शब्दादि द्रव्यों का उपादान होता है, उसमें ज्ञानोत्पत्ति होती है। इस शंका (या . पूर्वपक्षी समुदायज्ञानवादी के प्रत्युत्तर) को ध्यान में रखकर (भाष्यकार) कह रहे हैं- (समुदाये वाऽभूतम्)। 'वा' शब्द या 'च' शब्द नये कथन की प्रस्तावना के सूचक होते हैं। यहां भी 'वा' शब्द से नये कथन का प्रारम्भ किया जा रहा है। (भाष्यकार का कहना है-) वहां यदि एक ही चरम समय में ज्ञान (की उत्पत्ति) स्वीकारते हैं तो वह (चरम समय भी तो) समस्त समय-समुदाय की अपेक्षा से (उस समुदाय का) एकदेश ही (तो) है। इस प्रकार, इस एकदेश (चरम समय) से रहित शेष समयसमुदाय में जो ज्ञान नहीं रहा तो बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि वह ज्ञान चरम समय रूप देश में अकस्मात् ही कैसे सकल, अखण्ड रूप में निष्पन्न हो जाएगा? (अर्थात् कभी नहीं हो सकता), क्योंकि ऐसा होना प्रमाण-संगत नहीं है। (जरा सोचिए!) जब व्यञ्जनावग्रह के प्रथम समय (में ज्ञानोत्पादन की सामर्थ्य नहीं है, उसी) की तरह शब्दादि द्रव्य- उपादान सम्बन्धी एक (मात्र) चरम समय में (भी) ज्ञान नहीं हो पाएगा, क्योंकि वहां एक समयमात्र के शब्दादि द्रव्य का उपादान हुआ है (न कि समस्त समयों का)। (शंकाकार-) चलो, आपका कहना सही हो, किन्तु चरम समय में तो अर्थावग्रह रूप ज्ञान की अनुभूति प्रत्यक्ष हो रही होती है, अतः आपकी प्रतिज्ञा (साध्य व पक्ष का कथन जो किया गया है) ही स्वतःविरुद्ध हो जाती है। (उत्तर-) आपका कहना युक्तियुक्त नहीं, 'चरम समय में ही समग्र ज्ञान उत्पन्न होता है'- यह जो आपने प्रतिज्ञात (मत-स्थापित) किया है, उसी का ही प्रत्यक्ष विरोध उसी प्रकार सिद्ध होता है जिस प्रकार चरम तन्तु में समस्त पट को उत्पन्न करने का कथन (विरुद्ध होता है)। इस प्रकार (व्यअनावग्रह) के सभी शब्दादि-द्रव्यसम्बद्ध समयों में ज्ञान है, इत्यादि जो हमारा अनुमान-वचन (प्रतिज्ञा) है,वह आपके पक्ष (प्रतिज्ञा) का विरोधी है (अर्थात् आपके पक्ष या प्रतिज्ञा का निराकरण करता है)। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 202 // Ma 296 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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