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________________ तदेवमवग्रहादिभेदचतुष्टयविषया निराकृताः सर्वा अपि परविप्रतिपत्तयः, तन्निराकरणप्रक्रमे चानन्तरमवग्रहो द्विरूपः प्रोक्तः। सच कथं द्विरूपो भवति? इत्याशक्य तद्विरूपताकथनव्याजेन पूर्व यान्याभिनिबोधिकज्ञानस्याऽवग्रहादीनि चत्वारि भेदवस्तून्युक्तानि, तेष्वेव मध्येऽवग्रहं तावद् व्याचिख्यासुराह तत्थोग्गहो दुरूवो गहणं जं होइ वंजणत्थाणं। वंजणओ य जमत्थो तेणाईए तयं वोच्छं // 193 // [संस्कृतच्छाया:- तत्रावग्रहो द्विरूपो ग्रहणं यद् भवति व्यञ्जनार्थयोः। व्यञ्जनतश्च यदर्थस्तेनादौ तकं वक्ष्ये // ] तत्राऽवग्रहणमवग्रहो द्विरूपो यथा भवति, तथा प्रोच्यते। कथम्?, इत्याह- यद यस्माद् ग्रहणं व्यञ्जनाऽर्थयोरेव भवेत, अन्यस्य ग्राह्यस्याऽभावात्। ततश्च विषयद्वैविध्यादवग्रहो द्विविध इति भावः। अपरं च, यद्यस्मात् कारणाद् वक्ष्यमाणन्यायेन प्राप्यकारिष्विन्द्रियेषु व्यञ्जनतो- व्यञ्जनावग्रहादनन्तरमेव, अर्थ:- अर्थावग्रहो भवति,तेनाऽऽदौ प्रथमतस्तकं व्यञ्जनावग्रहमेव वक्ष्ये // इति गाथार्थः॥१९३॥ [व्यअनावग्रहादि] इस प्रकार, अवग्रह आदि चार भेदों को लेकर जो शंकाएं, आपत्तियां उठाई गईं, उन सभी का निराकरण हो गया। उक्त आपत्ति-निराकरण के प्रसंग में अवग्रह के दो भेद भी बताए गए। अवग्रह की द्विविधता कैसे है? इस आशंका को दृष्टि में रखकर, पहले आभिनिबोधिक ज्ञान के अवग्रह आदि चार भेद बताए थे, उन्हीं में से (प्रथम) अवग्रह का, उसकी द्विविधता के निरूपण के. बहाने से, (उस निरूपण को माध्यम बनाते हुए) व्याख्यान करने के इच्छुक (भाष्यकार आगे की गाथा) कह रहे हैं // 193 // तत्थोग्गहो दुरूवो गहणं जं होइ वंजणत्थाणं / वंजणओ य जमत्थो तेणाईए तयं वोच्छं // [(गाथा-अर्थ :) उन (अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा) में अवग्रह के दो रूप (प्रकार) हैं, क्योंकि उसके ग्रहणयोग्य व्यञ्जन व अर्थ (-ये दो विषय) होते हैं। (चूंकि) व्यअनावग्रह के बाद अर्थावग्रह (घटित) होता है, इसलिए मैं पहले उस (व्यअनावग्रह) के विषय में निरूपण करूंगा।] व्याख्याः - उनमें (वस्तु में सामान्यतया) अवग्रहणात्मक ज्ञान (ही) होता है। उसके दो भेद जिस प्रकार से होते हैं, उसे कहा (स्पष्ट किया) जा रहा है। (वे दो भेद) क्यों हैं? उत्तर दिया- (यत् ग्रहणम्)। चूंकि ग्रहण (या अवग्रहण) व्यञ्जन व अर्थ (-इन दो) का होता है, (इनके अतिरिक्त) कोई अन्य ग्राह्य (अवग्रहणयोग्य) नहीं होता। इसलिए विषय की द्विविधता के कारण, अवग्रह के दो भेद हो जाते हैं- यह भाव है। दूसरी बात, चूंकि आगे किये गये निरूपण के अनुसार प्राप्यकारी इंद्रियों में व्यअनावग्रह होता है, और उसके बाद ही अर्थ यानी अर्थावग्रह होता है, इसलिए मैं सर्वप्रथम उस व्यअनावग्रह का ही निरूपण करूंगा || यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 193 // - 284 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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