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________________ तदेतद् दूषयितुमाह कासइ तयन्नवइरेगमेत्तओऽवगमणं भवे भूए। सब्भूयसमण्णयओ तदुभयओ कासइ न दोसो॥१८६॥ . [संस्कृतच्छाया:- कस्यचित् तदन्यव्यतिरेकमात्रतोऽवगमनं भवेद् भूते। सद्भूतार्थसमन्वयतस्तदुभयतः कस्यचिद् न दोषः॥] 'भूएत्ति'।तत्र विवक्षितप्रदेशे भूते विद्यमानेऽर्थे स्थाण्वादौ कासइत्ति'।कस्यचित् प्रतिपत्तुस्तदन्यव्यतिरेकमात्रादवगमनं निश्चयो भवति- तस्मात् स्थाण्वादेर्योऽन्यः पुरुषादिरर्थस्तस्य व्यतिरेकः स एव तदन्यव्यतिरेकमात्रं तस्मात् स्थाण्वाद्यर्थनिश्चयो भवतीत्यर्थः। तद्यथा- यतो नेह शिर:कण्डूयनादयः पुरुषधर्मा दृश्यन्ते; ततः स्थाणुरेवाऽयमिति। कस्यापि सद्भूतसमन्वयतः सद्भूतस्तत्र प्रदेशे विद्यमानः स्थाण्वादिरर्थस्तस्य समन्वयतोऽन्वयधर्मघटनाद् भूतेऽर्थेऽवगमनं निश्चयो भवेत्, यथा स्थाणुरेवाऽयम्, वल्ल्युत्सर्पण यानी विवक्षित प्रदेश में विद्यमान वृक्ष आदि पदार्थ-विशेष, उसे 'यह वृक्ष ही है' -इस रूप में अवधारण करना 'धारणा' है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 185 // उक्त मत की दोषपूर्णता का निरूपण कर रहे हैं // 186 // कासइ तयन्नवइरेगमेत्तओऽवगमणं भवे भूए। सब्भूयसमण्णयओ तदुभयओ कासइ न दोसो // [(गाथा-अर्थ :) किसी व्यक्ति को तो सद्भूत पदार्थ में तद्भिन्न के व्यतिरेक (अभाव) मात्र (के बोध) से अवगम यानी निश्चय हो जाता है, किसी को सद्भूत पदार्थ में रहने वाले अन्वय-धर्मों (सहभावी धर्मों) के समन्वय (घटित) होने मात्र से, तो किसी को (तदन्यव्यतिरेक व तद्गत अन्वयधर्मसमन्वय -इन) दोनों से निश्चय (अपाय) होता है तो ऐसा होने में कोई दोष नहीं माना जाता है (किन्तु परकीय व्याख्यान में दोष की सम्भावना है, अतः वह व्याख्यान उपयुक्त नहीं)।] व्याख्याः-(भूते) भूत यानी 'वहां विवक्षित प्रदेश में स्थित वृक्ष आदि पदार्थ' / उसमें (कस्यचित्)। किसी ज्ञाता को तदन्यव्यतिरेक मात्र के बोध से निर्णय हो जाता है, अर्थात् तदन्य यानी उस वृक्ष से अन्य पदार्थ (घट-पटादि), उनके व्यतिरेक (अभाव) मात्र (के बोध) से वृक्षादि पदार्थ का निश्चय हो जाता है। उदाहरणार्थ- 'यह वृक्ष ही है' :-ऐसा निश्चय होता है, क्योंकि उस (पदार्थ) में वृक्ष से भिन्न पुरुष में रहने वाले धर्म -सिर खुजलाना आदि नहीं दिखाई देते। किसी को सद्भूत समन्वय से (निश्चय होता है), सदभत यानी 'उस प्रदेश में विद्यमान वक्ष आदि पदार्थ'. उसके समन्वय से, उसमें पाये जाने वाले अन्वय-धर्मों (वृक्ष के सहभावी धर्मों) के (वहां) समन्वय (बैठ जाने) से, अर्थात् उसमें रहने वाले अन्वय-धर्मों के वहां घटित होने से- उदाहरणस्वरूप, लता-आरोहण, पक्षियों के घोंसलों Ma 272 --------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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