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________________ अत्र चाऽवग्रहादारभ्य परैः सह विप्रतिपत्तयः सन्ति, इत्यवग्रहविषयां तां तावद् निराकर्तुमाह सामण्णविसेसस्स वि केई उग्गहणमुग्गहं बेति। जं मइरिदं तयं ति च, तं नो बहुदोसभावाओ॥१८१॥ [संस्कृतच्छाया:- सामान्यविशेषस्याऽपि केचिदवग्रहणमवग्रहं ब्रुवते। यद् मतिरिदं तदिति च, तद् नो बहुदोषभावात् // 181 // ] सामान्यं चासौ विशेषश्च सामान्यविशेषस्तस्याऽपि, न केवलं सामान्यार्थस्य, इत्यपिशब्दः, अवग्रहणमवच्छेदनं केचन व्याख्यातारोऽवग्रहं ब्रुवते। किं कारणम् ? इत्याह - 'जं मइरिदं तयं ति चेति' यद् यस्मात् कारणादमुतः शब्दादिलक्षणसामान्यविशेषग्राहकाऽवग्रहादनन्तरमिदं, तदिति च, इति विमर्शलक्षणा मतिरनुधावति- ईहा प्रवर्तते इत्यर्थः, यदनन्तरं चेहादिप्रवृत्तिः सोऽवग्रह एव, यथा व्यञ्जनावग्रहानन्तरभावी अव्यक्ताऽनिर्देश्यसामान्यमात्रग्राही अवग्रहः, प्रवर्तते च शब्दादिसामान्यविशेषग्राहकाऽवग्रहानन्तरमीहादिः, तस्मादवग्रह एवाऽयम् / तथाहि- दूरात् शङ्खादिसंबन्धिनि शब्दे सामान्यविशेषात्मके इस निरूपण में 'अवग्रह' (से लेकर धारण तक) के विषय में अन्यवादियों की ओर से विप्रतिपत्तियां (आपत्ति, आक्षेप, मतभिन्नता) उठाई गई हैं, अतः (भाष्यकार) अवग्रह-विषयक विप्रतिपत्ति का निराकरण करने जा रहे हैं // 181 // सामण्णविसेसस्स वि केई उग्गहणमुग्गहं बेति। जं मइरिदं तयं ति च, तं नो बहुदोसभावाओ // _ [(गाथा-अर्थ :) कुछ (व्याख्याता) लोग सामान्यविशेषात्मक पदार्थ का जो अवग्रहण हैजैसे 'यह वह है' इस प्रकार का जो मतिज्ञान होता है, उसे भी अवग्रह कहते हैं। उनका कथन ठीक नहीं है, क्योंकि (यदि उनके मत को माने) तब अनेक दोष उद्भावित होंगें।] . व्याख्याः- न केवल सामान्य पदार्थ का, अपितु सामान्य जो विशेष, उस सामान्यविशेष पदार्थ का भी जो अवग्रहण है, ज्ञान है, उसे कुछ व्याख्याता 'अवग्रह' कहते हैं। उनके कथन के पीछे क्या कारण (युक्ति) है? उत्तर दिया- 'यत् मतिः इदं तद्' इति। चूंकि 'यह वह है' इस प्रकार का जो मतिज्ञान होता है, अर्थात् चूंकि शब्द आदि रूप सामान्यविशेष ग्राहक इस अवग्रह के बाद 'यह वह है' इस प्रकार का विमर्शरूप मतिज्ञान अर्थात् ईहा ज्ञान उत्पन्न होता है, यह ईहा ज्ञान, जिस (ज्ञान) के बाद हुआ है, वह अवग्रह ही है। जैसे- व्यञ्जनावग्रह का उत्तरकालभावी अव्यक्त, अनिर्देश्य सामान्य मात्र का ग्राहक अवग्रह होता है, इस शब्दादि सामान्य विशेष-ग्राहक अवग्रह के बाद 'ईहा' आदि ज्ञान प्रवृत्त भी होते हैं, उदाहरणार्थ- दूर से शंख आदि से सम्बद्ध शब्द को (शब्देतर) रूपादि से भिन्न 'सामान्यविशेषात्मक शब्द' का ग्रहण होता है [यहां शब्द सामान्य का ग्रहण होता है तो वहीं रूपादि का ग्रहण नहीं भी है, इसलिए इसे विशेषात्मक ग्रहण भी कहा जा सकता है], उसके होने पर यह विमर्श. प्रारम्भ होता है कि यह शब्द (तो है, किन्तु यह) शंख का है, या भैंस के सींग (से वने वाद्य) Me ---------- विशेषावश्यक भाष्य - --- --- -265 -
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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