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________________ सामण्णत्थावग्गहणमुग्गहो भेयमग्गणमहेहा। तस्सावगमोऽवाओ अविच्चुई धारणा तस्स // 180 // [संस्कृतच्छाया:- सामान्यार्थावग्रहणमवग्रहो भेदमार्गणमहा। तस्यावगमोऽपायोऽविच्युतिर्धारणा तस्य // 180 // ] अन्तर्भूताऽशेषविशेषस्य केनापि रूपेणाऽनिर्देश्यस्य सामान्यस्याऽर्थस्यैकसामयिकमवग्रहणं सामान्यार्थावग्रहणम्, अथवा सामान्येन सामान्यरूपेणाऽर्थस्याऽवग्रहणं सामान्यार्थावग्रहणमवग्रहो वेदितव्यः। अथाऽनन्तरमीहा प्रवर्तते। कथम्भूतेयम्? इत्याहभेदमार्गणम्-भेदा वस्तुनो धर्मास्तेषां मार्गणमन्वेषणं विचारणं- प्रायः काकनिलयनादयः स्थाणुधर्मा अत्र वीक्ष्यन्ते, न तु शिर:कण्डूयनादयः पुरुषधर्मा इत्येवं वस्तुधर्मविचारणमीहेत्यर्थः। तस्यैवेहयेहितस्य वस्तुनस्तदनन्तरमवगमनमवगमः स्थाणुरेवाऽयमित्यादिरूपो निश्चयोऽवायोऽपायो वेति। तस्यैव निश्चितस्य वस्तुनोऽविच्युति-स्मृति-वासनारूपं धरणं धारणा, सूत्रेऽविच्युतेरुपलक्षणत्वात् // इति गाथार्थः॥ 180 // ||180 // सामण्णत्थावग्गहणमुग्गहो भेयमग्गणमहेहा। तस्सावगमोऽवाओ अविच्चुई धारणा तस्स || [(गाथा-अर्थ :) सामान्य अर्थ-अवग्रहण (सन्मात्र पदार्थ, या पदार्थ का सामान्य रूप से अवग्रहण) 'अवग्रह' है, (उसी के) भेदों (विशेषों) की मार्गणा (अन्वेषणा) 'ईहा' है। उसी (ईहित पदार्थ) का (निश्चयात्मक) अवगम 'अपाय' है और उसी (निर्णयात्मक ज्ञान) की अविच्छिन्न रूप से स्थिति 'धारणा' कही जाती है।] __व्याख्याः- जो समस्त विशेषों को अपने अन्दर समेटे हुए होता है, तथा किसी भी रूप से जो निर्दिष्ट नहीं किया जा सकता है, ऐसे 'सामान्य' (सन्मात्र) पदार्थ का एक समय में जो अवग्रह है, अथवा सामान्य रूप से अर्थ का ग्रहण, अर्थात् जो 'सामान्य अर्थावग्रहण' है, उसे 'अवग्रह' जानना चाहिए। (अवग्रह) इसके बाद 'ईहा' की प्रवृत्ति होती है। वह ईहा कैसी होती है? उत्तर दियाभेदमार्गणा रूप 'ईहा' है, अर्थात् भेद यानी वस्तुगत धर्म, उनकी जो मार्गणा यानी अन्वेषणा, विचारणा है, वह 'ईहा' है। जैसे 'कौए के घोंसले आदि वृक्षगत धर्म प्रायः यहां (दृष्टिगोचर हो रहे) हैं, सिर खुजलाना आदि पुरुषगत धर्म यहां (दृष्टिगोचर) नहीं हैं, इस प्रकार वस्तु-विषयक धर्मों की विचारणा 'ईहा' है। ईहा के बाद, ईहा से ईहित उसी पदार्थ का अवगमन या निर्णय होना- जैसे 'यह वृक्ष ही है' इत्यादि रूप निश्चय हो जाना -यह अपाय या अवाय है। उसी निश्चित वस्तु की जो अविच्युति (निर्णीत ज्ञानधारा का निरन्तर बने रहना) है, वह 'धारणा' है। यहां 'अविच्युति' पद उपलक्षण है, इसलिए (इसका कुछ विशेष अर्थ अभीष्ट है, अतः अर्थ यह होगा कि) वस्तु का जो अविच्छिन्न स्मृति-वासना रूप धारण है, वह 'धारणा' है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 180 // A 264 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----- ------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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