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________________ इह तावद् भवन्तं पृच्छामः- हन्त! शब्दः श्रुतमुच्यते, उपलक्षणत्वात् पुस्तकादिन्यस्ताऽक्षरविन्यासश्च श्रुतमभिधीयते,' 'सुयकारणं ति' श्रुतकारणत्वात्- कारणे कार्योपचारादिति भावः। स च शब्दः, पुस्तकादिन्यस्ताक्षरविन्यासश्च परबोधनं परप्रत्यायनं करोतीत्येवं परतः श्रुतज्ञानं परप्रत्यायकमुच्यते, न तु स्वतः, इति तावद् भवतोऽभिप्रायः। एतच्च मतिज्ञानेनाऽपि समानम्। कुतः? इत्याह- हि यस्माद् मतिहेतवोऽपि मतिजनका अपि करादिचेष्टाविशेषाः परं बोधयन्त्येव। तथाहि- अक्षरात्मकत्वात् किल शब्दः, पुस्तकादिन्यस्ताक्षरविन्यासश्च श्रुतस्य कारणम्, कर-शीर्षादिचेष्टास्तु अक्षररहितत्वात् किल मतिज्ञानस्य हेतवः-कर-वक्त्रसंयोगे हि कृते भुजिक्रियाविषया किल मतिरुत्पद्यते, शीर्षे च धूनिते निवृत्तिप्रवृत्तिविषया सा समुपजायते, इत्येवं मतिहेतवः करादिचेष्टा अपि परप्रबोधिका एव // इति गाथार्थः॥१७२ // यदि मतिहेतवोऽपि परं प्रबोधयन्ति, ततः किम्? इत्याह न परप्पबोहयाइं जं दो वि सरूवओ मइ-सुयाई। तक्कारणाइं दोण्ह वि बोहेति तओ न भेओ सिं॥१७३॥ व्याख्याः- यहां हमारी खेद पूर्वक आपके समक्ष एक शंका है- सम्भवतः आपका यह अभिप्राय है- शब्द को श्रुत कहा गया है। 'शब्द' यह उपलक्षण है, अतः (श्रुत शब्द से) पुस्तक आदि में निहित अक्षर-विन्यास का भी ग्रहण करना चाहिए। (अतः अर्थ हुआ- शब्द और ग्रन्थादि में निहित अक्षर-विन्यास- ये दोनों श्रुत हैं। ये दोनों 'श्रुत' रूप इसलिए हैं) क्योंकि यहां कारण में कार्य का उपचार किया जाता है, और शब्द व अक्षरादि श्रुतज्ञान में कारण हैं, अर्थात् वे स्वतः तो दूसरों को बोध नहीं कराते, किन्तु ‘परतः' (दूसरों को बोध कराने वाले श्रुत-ज्ञान के कारण होकर, परम्परया) बोध कराते हैं। किन्तु ऐसी समान स्थिति तो मतिज्ञान में भी है। कैसे? उत्तर दिया- (हि मतिहेतवः)- चूंकि मति की हेतु अर्थात् मति की जनक होने पर भी 'कर' (हाथ) आदि की विशेष चेष्टाएं दूसरों को बोध कराती ही हैं। जैसे, शब्द और पुस्तकादि में लिखे अक्षर अक्षरात्मक होने से श्रुत के कारण हैं। हाथ व सिर की चेष्टाएं तो अक्षररहित होने से मतिज्ञान की हेतु हैं, क्योंकि हाथ व मुख के संयोग की क्रिया भोजन-विषयक मति (ज्ञान) को उत्पन्न करती है, सिर हिलाने से निवृत्ति या प्रवृत्ति सम्बन्धी मतिज्ञान उत्पन्न होता है, इस प्रकार हाथ आदि की चेष्टाएं भी मति-हेतु होती हुईं अन्य-बोधक (भी) होती ही हैं (इस प्रकार मति व श्रुत में अन्तर कहां रहा?)॥ यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 172 // यदि (करादि चेष्टाएं) मति-हेतु होते हुए भी अन्य को बोध कराती हैं, तो इससे क्या सिद्ध हुआ? इस जिज्ञासा के समाधान हेतु कह रहे हैं (173) न परप्पबोहयाइं जं दो वि सरूवओ मइ-सुयाइं। तक्कारणाई दोण्ह वि बोहेति तओ न भेओ सिं॥ AMD 252 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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