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________________ अन्यैस्तु कैश्चिदाचार्यैः स्व-परप्रत्यायनतो मति-श्रुतयोर्भेदोऽभिहितः। कयोरिव? इत्याह- मूकेतरयोरिव- यथा हि मूकः स्वमात्मानमेव प्रत्याययति प्रतीतिपथं नयति, न तु परम्, तत्प्रत्यायनहेतुवचनाभावात्, इतरस्त्वमूकः स्वं परं च प्रत्याययति, वचनसद्भावात्। तथा च सति यथा मूक-मुखरयोर्भेदः, एवं मति-श्रुतयोरपि।यद्यस्मात् परप्रत्यायनहेतुद्रव्याक्षराभावाद् मूकं मतिज्ञानम्, मुखरं तु श्रुतज्ञानम्, कुत:?, स्व-परप्रत्यायकत्वात्- द्रव्याक्षरसद्भावेन परप्रत्यायकत्वस्याऽपि तत्र लभ्यमानत्वादिति भावः॥ इति गाथार्थः॥१७१॥ एतदाचार्यो मति-श्रुतयोस्तुल्यताऽऽपादनेन किञ्चिद् दूषयितुमाह सुयकारणं ति सद्दो सुयमिह सो य परबोहणं कुणइ। मइहेयवो वि हि परं बोहेति कराइचिट्ठाओ॥१७२॥ [संस्कृतच्छाया:- श्रुतकारणमिति शब्दः श्रुतमिह स च परबोधनं करोति। मतिहेतवोऽपि हि परं बोधयन्ति करादिचेष्टाः॥] व्याख्याः- अन्य कुछ आचार्यों ने स्वपरप्रत्यायन (स्व-पर प्रतीति कराने की क्षमता) के आधार पर मति व श्रुत में भेद का कथन किया है। किन की तरह? उत्तर है- (स्वपरप्रत्यायन-क्षमता से रहित) मूक व्यक्ति और (उक्त क्षमता से युक्त) अमूक व्यक्ति की तरह। जैसे कोई मूक (गूंगा) व्यक्ति मात्र स्वयं को, अपने को ही प्रतीति करा पाता है, किसी दूसरे को नहीं, क्योंकि उसके पास वैसी प्रतीति कराने में समर्थ वाणी नहीं होती। किन्तु इससे विपरीत अमूक (बोलने में समर्थ) व्यक्ति स्वयं को तथा दूसरे को भी प्रतीति कराता है, क्योंकि उसके पास वाणी का सद्भाव है। इस प्रकार जैसा मूक व मुखर व्यक्ति में भेद (अन्तर) होता है, उसी प्रकार मति व श्रुत में भी भेद है। चूंकि (मतिज्ञान में) दूसरों को प्रतीति कराने वाले 'द्रव्याक्षर' का अभाव है, इसलिए मतिज्ञान 'मूक' है, किन्तु श्रुतज्ञान मुखर है। क्यों? उत्तर है- (वह मुखर इसलिए है) क्योंकि स्वयं को और दूसरों को प्रतीति कराने की क्षमता, अर्थात् द्रव्याक्षर के सद्भाव से (उसमें एक अतिरिक्त क्षमता-) परप्रतीतिक्षमता (दूसरों को समझा पाने की क्षमता) भी वहां होती है- यह तात्पर्य है | यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 171 // (मति व श्रुत की भिन्नता के सन्दर्भ में शंका व समाधान) उक्त कथन से तो व श्रुत में समानता प्रकट होती है- इस रूप में आचार्य पूर्वोक्त कथन में दोष प्रदर्शित कर रहे हैं (172) सुयकारणं ति सद्दो सुयमिह सो य परबोहणं कुणइ। मइहेयवो वि हि परं बोहेंति कराइचिट्ठाओ // [ (गाथा-अर्थ :) शब्द चूंकि दूसरे को बोध कराता है, इस प्रकार (परतः, न कि स्वतः) श्रुत का कारण होने से वह श्रुत (कहा जाता है) है, इस तरह तो मति की हेतुभूत करादि-चेष्टाएं भी दूसरों को (परतः) बोधित करती ही हैं (अतः दोनों की समानता ही हुई)।] . ----- विशेषावश्यक भाष्य --------251 2
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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