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________________ इहास्मिन् प्रक्रमे येन कारणेन ज्ञानयोरेव मति-श्रुतलक्षणयोर्विशेषो भेदोऽधिकृतो न तु द्रव्य-भावयोर्मतिज्ञान-द्रव्यश्रुतलक्षणयोः, इत्यतः किं तद्भेदाऽभिधानेन? इति।नच यथोक्तद्रव्य-भावयोरप्यसौ युज्यते। कुतः? इत्याह- असमञ्जसतो दृष्टान्त-दान्तिकयो(सदृश्यात्॥ इति गाथार्थः॥१५८॥ तथाहि जह वग्गा सुबत्तणमुवेंति सुंबं च तं तओऽणण्णं। न मई तहा धणित्तणमुवेइ जं जीवभावो सा॥१५९॥ [संस्कृतच्छाया:- यथा वल्काः शुम्बत्वमुपयान्ति शुम्बं च तत् ततोऽनन्यत्। न मतिस्तथा ध्वनित्वमुपैति यज्जीवभावः सः॥] यथा वल्काः शुम्बत्वमुपयान्ति-आत्माऽव्यतिरिक्तशुम्बपरिणामापन्नाः शुम्बमित्युच्यन्ते, न तु शुम्बाद् व्यतिरिक्ताः, तदपि च शुम्बं तेभ्यो वल्केभ्योऽनन्यरूपमव्यतिरिक्तम्, न तथा मतिर्ध्वनित्वमुपैति, यद् यस्मात् कारणात् सा मतिराभिनिबोधिकज्ञानत्वेन जीवभावो जीवपरिणामः, शब्दस्तु मूर्तत्वाद् न जीवभावः, इत्यतः कथममूर्तपरिणामा मतिर्मूर्तध्वनिपरिणाममुपगच्छेत्? अमूर्तस्य मूर्तपरिणामविरोधात्। तस्माद् दृष्टान्त-दार्टान्तिकयोर्वैषम्यादिदमपि व्याख्यानमुपेक्षणीयम् // इति गाथार्थः॥ 159 // ___ व्याख्याः - यहां जो प्रकरण चल रहा है, उसमें चूंकि मति व श्रुत- इन दो ज्ञानों के भेद या वैशिष्ट्य का निरूपण प्रसंगोचित है। मतिज्ञान व द्रव्यश्रुत रूप में द्रव्य व भाव (के भेद) का प्रकरण यह नहीं है, इसलिए उनके भेद का निरूपण करने से क्या लाभ? (दूसरी बात यह कि) पूर्वोक्त द्रव्य व भाव में भी वह दृष्टांत सही नहीं ठहरता / क्यों? उत्तर है- असमंजसता के कारण, अर्थात् दृष्टान्त व दान्तिक के परस्पर-वैषम्य होने से (वह दृष्टान्त भी युक्तियुक्त नहीं ठहरता) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 158 // (दृष्टान्त व दार्शन्तिक की विषमता को समझाते हुए कह रहे हैं-) उदाहरणार्थ (159) जह वग्गा सुंबतणमुति सुंबं च तं तओऽणण्णं / न मई तहा धणित्तणमुवेइ जं जीवभावो सा॥ [(गाथा-अर्थः) जिस प्रकार वल्क (छाल) ही शुम्बरूपता को प्राप्त होती है, वह शुम्ब वल्क से भिन्न (कोई वस्तु) नहीं होता। किन्तु मति उस तरह (अनन्य रूप से) ध्वनिरूपता को प्राप्त नहीं करती, क्योंकि मति तो जीव का स्वभाव है (और ध्वनि पुद्गल का)।] व्याख्याः- जिस प्रकार वल्क (छाल) ही शुम्ब रूपता को प्राप्त करती है, अर्थात् वल्क ही अपने से अनन्य शुम्बपरिणाम को प्राप्त होकर 'शुम्ब' रूप से कहा जाता है, वह वल्क उस शुम्ब से कोई अलग वस्तु नहीं होती, और वह शुम्ब भी उन वल्कों से अनन्य होता है अर्थात् उससे अन्य पृथक् कोई वस्तु नहीं होता। किन्तु मति ज्ञान उस रूप में (अनन्य रूप में) ध्वनिरूपता को नहीं प्राप्त 0 ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 237 2
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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