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________________ श्रुतमतिर्विवक्षिता, न त्वाभिनिबोधिकमतिः। ततश्च यैश्चतुर्दशपूर्वविदो हीनाधिकास्तानपि च मतिविशेषान् श्रुतज्ञानाभ्यन्तरे जानीहि श्रुतज्ञानान्त विन एव विद्धि, न त्वाभिनिबोधिकान्तर्वर्तिन इति भावः। यद्येवं ते वि य मईविसेसे सुयनाणं चेव जाणाहि' इत्येवमेव प्रगुणं कस्माद् नोक्तम्, किमभ्यन्तरशब्दोपादानक्लेशेन? / नैतदेवम्, अस्यापि न्यायस्य दृष्टत्वात्, अङ्गाभ्यन्तरादिव्यपदेशवत्, यथा ह्यङ्गमेवाऽङ्गाभ्यन्तरम्, एवं श्रुतमेव श्रुताभ्यन्तरमित्युक्तं भवति, अथवा छन्दोभङ्गभयादभ्यन्तरग्रहणम्, यदि वा 'सुयनाण-' इत्यनेन चतुर्दशपूर्वलक्षणं श्रुतमधिक्रियते, ततश्च तानपि गम्यान् मतिविशेषांश्चतुर्दशपूर्वाक्षरलाभरूपस्य श्रुतस्यैवाऽभ्यन्तरे जानीहि त्वं, न व्यतिरिक्तानिति शिष्योपदेशः, चतुर्दशभिरपि हि पूर्वैः कश्चित् साक्षात्, कश्चित्तु गम्यतया सर्वोऽप्यभिलाप्यः पदार्थोऽभिधीयत एव, ततश्च गम्या अपि मतिविशेषास्तदन्त विन एव, तदनुसारित्वात् // इति गाथार्थः॥१४३॥ चतुर्दशपूर्वलक्षणश्रुतानुसारित्वेन यदेतद् मतिविशेषाणां तदन्त वित्वमुक्तम्, तदेव समर्थयन्नाह 'मति’ पद को भ्रान्तिवश मतिज्ञान समझ कर मतिविशेष का अर्थ कहीं 'आभिनिबोधिकज्ञानविशेष' न समझ लिया जाय- इसलिए कहा- (ते अपि च)। तात्पर्य है कि यहां ‘मति' पद से श्रुत-मति विवक्षित है, न कि आभिनिबोधिक मति / इस प्रकार, जिनके कारण चतुर्दशपूर्वधारी (परस्पर में) हीन-अधिक हैं, उन मति-विशेषों को श्रुतज्ञान के अन्तर्गत जानना, अर्थात् श्रुत ज्ञान के अन्तर्गत ही समझना, आभिनिंबोधिक ज्ञान के अन्तर्गत मत समझना / (प्रश्न-) यदि ऐसा है तो यही कह देते कि “उन मति-विशेषों को श्रुतज्ञान जानना'। 'अन्तर्गत’ -यह शब्द देने का कष्ट क्यों किया? (उत्तर) यह बात नहीं है, क्योंकि यह भी एक न्याय है जिसका यहां उपयोग किया गया है। वह न्याय है कि अंग को ही अंग के अन्तर्गत कहा जाता है, उसी प्रकार श्रुत को 'श्रुत के अन्तर्गत' रूप में कहा गया है। अथवा-छन्दोभंग के भय से (अर्थात् छन्द-रचना की सुविधा को ध्यान में रखकर) आभ्यन्तर यानी 'अन्तर्गत' पद को प्रयुक्त किया गया है। अथवा 'श्रुतज्ञान' इस पद से चतुर्दशपूर्व रूपी श्रुत का ग्रहण किया गया है, तदनन्तर, उन गम्यार्थों को ग्रहण करने वाले मति-विशेषों को चतुर्दशपूर्व-अक्षर-लाभ रूप श्रुत के अन्तर्गत ही जानना, न कि उनसे अतिरिक्त या पृथक्- इस प्रकार शिष्य को उपदेश दिया गया है। चौदह पूर्वो द्वारा भी कोई तो साक्षात्, तो कोई परम्परया ज्ञेय रूप में, इस प्रकार समस्त अभिलाप्य पदार्थ का कथन होता ही है, इसलिए ज्ञेय मतिविशेष भी उसी श्रुत के अन्तर्भूत हैं, क्योंकि वे भी श्रुतानुसारी हैं। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 143 // .. चतुर्दशपूर्व रूप श्रुत के अनुसारी होने से मति-विशेषों का श्रुत-अन्तर्गत होना जो अभी बताया गया है, उसी का समर्थन करते हुए कह रहे हैं ---- विशेषावश्यक भाष्य ---- 219 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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