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________________ असंखेज्जभागब्भहिए वा, संखेजभागब्भहिए वा, संखेजगुणब्भहिए वा, असंखेज्जगुणब्भहिए वा, अणंतगुणब्भहिए वा'। तदेवं यतः परस्परं षट्स्थानपतिताश्चतुर्दशपूर्वविदः, तस्मात् कारणात् यत् सूत्रं चतुर्दशपूर्वलक्षणं तत् प्रज्ञापनीयानां भावानामनन्तभाग एवेति। यदि पुनर्यावन्तः प्रज्ञापनीया भावास्तावन्तः सर्वेऽपि सूत्रे निबद्धा भवेयुः, तदा तद्वेदिनां तुल्यतैव स्यात्, न षट्स्थानपतितत्वमिति भावः॥ इति गाथार्थः॥१४२॥ आह- ननु यदि सर्वेऽपि चतुर्दशपूर्वविदः, तर्हि कथं तेषां परस्परं हीनाधिक्यम्? इत्याह अक्खरलंभेण समा ऊणहिया होंति मईविसेसेहिं। ते वि य मईविसेसे सुयनाणब्भंतरे जाण॥१४३॥ [संस्कृतच्छाया:-अक्षरलाभेन समा: ऊनाधिकाः भवन्ति मतिविशेषैः / तानपि च मतिविशेषान् श्रुतज्ञानाभ्यन्तरे जानीहि // ] चतुर्दशपूर्वगतसूत्रलक्षणेनाऽक्षरलाभेन समास्तुल्याः सर्वेऽपि चतुर्दशपूर्वविदः, ऊनाधिकास्ते मतिविशेषैर्भवन्ति क्षयोपशमवैचित्र्याद्, यथोक्ताक्षरलाभानुसारिभिरेव तैस्तैर्गम्यार्थविषयैर्विचित्रैर्बुद्धिविशेषै-नाधिका भवन्तीत्यर्थः। इह च मतिशब्दोपादानविभ्रमात् ते मतिविशेषा मा भूवन्नाभिनिबोधिकज्ञानविशेषाः, इत्यत आह- 'ते वि येत्यादि'। इदमुक्तं भवति- मतिशब्देनेह उत्कृष्टतर आदि भी होता है- ऐसा भी (आगम में) कहा गया है, जैसे अनन्तभाग-अधिक, असंख्यातभाग-अधिक, संख्यातभाग- अधिक। चूंकि इस प्रकार चतुर्दशपूर्वज्ञानी परस्पर में 'षट्स्थानपतित' हैं, इस कारण से (ऐसा कहा जाता है कि) जो चतुर्दशपूर्व रूपी श्रुत है, उसमें प्रज्ञापनीय भावों का अनन्तवां भाग ही (निबद्ध) है। यदि जितने भी प्रज्ञापनीय पदार्थ होते हैं, उतने सभी श्रुत में निबद्ध होते तो उनके ज्ञानियों की भी तुल्यता कही जाती, और षस्थानपतित उन्हें नहीं बताया जाता- यह तात्पर्य है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 142 // (शंका-) यदि चौदहपूर्वो के ज्ञाता हैं तो उनमें परस्पर हीनाधिकता कैसे? इस शंका को दृष्टि में रखकर भाष्यकार कह रहे हैं (143) अक्खरलंभेण समा ऊणहिया होति मईविसेसेहिं। ते वि य मईविसे से सुयनाणभंतरे जाण // [(गाथा-अर्थः) सभी चतुर्दशपूर्वधर अक्षर-लाभ की दृष्टि से समान हैं, परन्तु मति-विशेष से हीनाधिक होते हैं। उन मतिविशेषों को श्रुतज्ञान के अन्तर्गत ही जानें।] व्याख्याः- चतुर्दशपूर्व रूपी जो अक्षर-लाभ है, उसकी दृष्टि से सभी चतुर्दशपूर्वधारी समान हैं, उनमें जो हीन या अधिक होते हैं, वे मतिविशेषों के कारण होते हैं, अर्थात् वे क्षयोपशम-विचित्रता के कारण होते हैं, अर्थात् वे पूर्वोक्त अक्षरलाभ का अनुसरण करते हुए भी उन-उन ज्ञेय पदार्थों को विषय बनाने वाले विचित्र बुद्धि-विशेषों के कारण हीन या अधिक होते हैं। यहां मति-विशेष में आये Ma 218 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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