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________________ प्रत्येकावस्थायां तद्भावाभावात्, न हि प्रत्येकं सिकताकणेष्वसत् तैलं समुदितावस्थायामपि भवतीति भावः। तदेवमुभयस्य स्वतन्त्रस्याऽस्वतन्त्रस्य वा भावश्रुतत्वेनाऽभावे सति तद् भावश्रुतं क्व शब्दादौ?, किं वा तत्?, न किञ्चिदिति भावः // इति गाथार्थः॥१३३॥ अथ भाषापरिणतिकाले मतेः किमप्याधिक्यमुपजायते, इत्युभयस्य श्रुतत्वं न विरुध्यते, इत्याह भासापरिणइकाले मईए किमहियमहण्णहत्तं वा?। भासासंकप्पविसेसमेत्तओ वा सुयमजुत्तं // 134 // [संस्कृतच्छाया:- भाषापरिणतिकाले मत्या किमधिकमथान्यथात्वं वा? भाषासंकल्पविशेषमात्रतो वा श्रुतमयुक्तम्॥] मतेरन्तर्विज्ञानविशेषस्य भाषापरिणतिकाले शब्दप्रारम्भवेलायां पूर्वावस्थातः किमधिकं रूपं संपद्यते?, येनोभयावस्थायां सा ज्ञानान्तरं स्यात् श्रुतव्यपदेशः स्यादित्यर्थः। कहो कि मति व शब्द- दोनों समुदित (मिल कर संयुक्त) होकर भावश्रुत हों, तो तुम्हारा यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि (जब दोनों मिलने वालों में प्रत्येक भावश्रुत नहीं है, तो मिलकर भी वे उसी प्रकार भावश्रुत नहीं हो सकते जिस प्रकार बालू के (प्रत्येक कण तैलरहित होते हैं तो) सभी कण मिल भी जाएं तो भी उनमें तैल का सद्भाव नहीं हो सकता- यह तात्पर्य है। इस प्रकार, शब्द व मति - इनमें प्रत्येक स्वतंत्र हों या परस्पर मिल जाएं तो भी भावश्रुत नहीं हो सकता, ऐसी स्थिति में यह बताएं कि भावश्रुत इनमें कहां है? और (है तो) क्या (या किस रूप में) है? // यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 133 // (पूर्वपक्ष का कथन-) (भले ही मति व श्रुत में पृथक्-पृथक् श्रुतरूपता न हो, फिर भी) भाषापरिणति के समय, मति में कुछ अधिकता, विशेषता आ जाती है जिससे दोनों (मति व शब्द) मिल कर श्रुत हों- अतः यदि ऐसा मान लें तब तो कोई विरोध नहीं? उक्त पूर्वपक्षी के कथन का प्रत्युत्तर दे रहे हैं (134) भासापरिणइकाले मईए किमहियमहण्णहत्तं वा?। भासासंकप्पविसे समेत्तओ वा सुयमजुत्तं // [(गाथा-अर्थः) भाषापरिणति के समय ‘मति' में अधिकता या अन्यथाभाव (अन्यरूपान्तरण) आखिर क्या हो सकता है? (अर्थात् कोई नहीं)। मात्र भाषा-सम्बन्धी संकल्प-विशेष होने से उनका भावश्रुत होना युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता।] व्याख्याः- मति रूप जो आन्तरिक विज्ञान है उसका भाषा-परिणति के समय, शब्द की प्रारम्भ-वेला में, अपनी पूर्व अवस्था की अपेक्षा वह कौन-सा अधिक रूप है जिससे दोनों की मिलित (उभय-) अवस्था में वह ज्ञानान्तर हो जाता है या उसका श्रुत व्यपदेश (भावश्रुत रूप में कहा जाना संभव) होता है? WA 208 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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