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________________ तदेवं कैश्चिद् मूलगाथायाः पूर्वार्धे व्याख्याते सूरिर्दूषणमाह- 'तत्थ किं सद्दी इत्यादि'। तत्र तैरेवं व्याख्याते भावश्रुतं सर्वथैवाऽयुक्तं स्यात्, सर्वथा तदभावः प्राप्नोतीत्यर्थः, तथाहि- किं भाष्यमाणःशब्दो भावश्रुतम्, मतिर्वा, उभयं वा? इति त्रयी गतिः। अस्य च त्रितयस्य मध्ये भावश्रुतं युक्तमिति भावः॥ इति गाथार्थः॥१३२॥ कथम्?, इत्याह सद्दो ता दव्वसुयं मइराभिणिबोहियं न वा उभयं। जुत्तं, उभयाभावे भावसुयं कत्थ तं किं वा?॥१३३॥ [संस्कृतच्छाया:- शब्दस्तावद् द्रव्यश्रुतं मतिराभिनिबोधिकं न बोभयम्। युक्तं, उभयाभावे भावश्रुतं क्व तत् किं वा? // ] मत्युपयुक्तस्य शब्दमुदीरयतो यस्तावच्छब्दः स द्रव्यश्रुतमेव, इति कथं भावश्रुतं स्यात्?, मतिस्त्वाभिनिबोधिकज्ञानम्। भवतु तर्हि मति-शब्दलक्षणमुभयं समुदितं भावश्रुतम्, इत्याह- 'न वा उभयं जुत्तं ति'। नैव यथोक्तमुभयं समुदितमपि भावश्रुतं युक्तम्, से पदार्थों का भी वह विशेषण कह दिया गया है। इसलिए तात्पर्य यह समझें कि मतिज्ञान में दृष्ट पदार्थों का वक्ता जब मतिज्ञान-उपयोग से युक्त होकर जो बोले वह तो द्रव्यश्रुत होता है, इसलिए उनसे अवशिष्ट, यानी नहीं बोल रहे व्यक्ति का जो मात्र पदार्थ-पर्यालोचन रूप ज्ञान है, वह मतिज्ञान ही है। इस प्रकार मति व श्रुत में भेद या अन्तर (स्पष्ट) है। इस प्रकार, मूल गाथा के पूर्वार्द्ध का जो व्याख्यान किया गया, आचार्य ने उसमें दोष प्रदर्शित करते हुए कहा- (तत्र किं शब्दः)। जो इस प्रकार व्याख्या कर रहे हैं, उनके मत में भावश्रुत का सर्वथा अभाव होने लगेगा- यह भाव है। उदाहरणार्थ- (कृपया वे बताएं कि) बोला जाने वाला शब्द भावश्रुत है, या मति है या उभयात्मक है? ये तीन ही विकल्प उनके सामने खुले हैं। इन तीनों विकल्पों में से किसी भी विकल्प के मानने पर भावश्रुत का सद्भाव संगत -युक्तियुक्त नहीं ठहरता // यह गाथा का अर्थ (पूर्ण) हुआ // 132 // वह भावश्रुत कैसे असंगत ठहरता है- इसके उत्तर में कह रहे हैं (133) सद्दो ता दव्वसुयं मइराभिणिबोहियं न वा उभयं / जुत्तं, उभयाभावे भावसुयं कत्थ तं किं वा? // ___[(गाथा-अर्थः) शब्द तो द्रव्यश्रुत है और मति आभिनिबोधिक है और (शब्द व मति) दोनों का मिल कर भी भावश्रुत होना युक्तियुक्त नहीं। इस प्रकार दोनों में भावश्रुत न होने से (शब्दादि में) कहां व कौन सा भावश्रुत है?] व्याख्याः- मति-उपयोगयुक्त व्यक्ति जो शब्द बोलता है, वह तो द्रव्यश्रुत ही है, वह भावश्रुत कैसे हो सकता है? और मति आभिनिबोधिक ज्ञान है (तो वह भी भावश्रुत नहीं हो सकता)। ऐसा यदि ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 2074
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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