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________________ [संस्कृतच्छाया:-द्रव्यश्रुतं भावश्रुतमुभयं वा किं कथं वा भवेदिति। को वा भावश्रुतांशो द्रव्यादिश्रुतं परिणमेत् // ] ' इह 'सोइंदिओवलद्धी' इत्येतस्यां गाथायां 'मोत्तूर्ण दव्वसुयं' इत्यनेन पुस्तकादिन्यस्तं द्रव्यश्रुतमुक्तम्, अक्षरलाभवचनात्तु भावश्रुतम्, श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिवचनेन तु शब्दः, तद्विज्ञानं चेत्युभयश्रुतमुक्तम्। तत्राऽनन्तरवक्ष्यमाणपूर्वगतगाथायामेतच्चिन्त्यते- किं तद् द्रव्यादिश्रुतम्?, कथं वा तद् भवति?,को वा कियान् वेत्यर्थः, भावश्रुतस्यांशो भागो द्रव्यश्रुतं द्रव्यश्रुतरूपतया, आदिशब्दादुभयश्रुतरूपतया वा परिणमेत्? // इति गाथार्थः // 127 // का पुनरसौ पूर्वगतगाथा?, इत्याह बुद्धिद्दिढे अत्थे जे भासइ तं सुयं मईसहियं। इयरत्थ वि होज सुयं उवलद्धिसमं जइ भणेजा॥१२८॥ [संस्कृतच्छाया:- बुद्धिदृष्टेऽर्थे यान् भाषते तत् श्रुतं मतिसहितम्। इतरत्रापि भवेत् श्रुतमुपलब्धिसमं यदि भणेत् // ] [(गाथा-अर्थः) द्रव्यश्रुत, भावश्रुत व उभयश्रुत (का निरूपण किया जा चुका है। अब आगे की गाथा में इस पर विचार करेंगे कि वह श्रुत) क्या है; कैसे होता है, और भावश्रुत का कौन सा या कितना भाग द्रव्य आदि श्रुत में परिणत होता है?] ___ व्याख्याः- 'श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः' इत्यादि (117वीं) पूर्व गाथा में 'द्रव्यश्रुत को छोड़कर' यह कह कर पुस्तक आदि में व्यस्त (लिखित) को 'द्रव्यश्रुत' बताया। 'अक्षर-लाभ' इस वचन (के व्याख्यान) से भावश्रुत का निरूपण किया। 'श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि' इस वचन (के व्याख्यान) द्वारा शब्द और उसके विज्ञान को उभयश्रुत बताया। अब आगे प्रस्तुत की जा रही 'पूर्वगत' ('पूर्व'-शास्त्र से सम्बद्ध) गाथा में इस बात का विचार किया जा रहा है कि वह द्रव्यादिश्रुत क्या है? वह कैसे होता है? भावश्रुत का कौन सा या कितना भाग द्रव्यश्रुत आदि रूप में, परिणत होता है। यहां 'आदि पद से' उभयश्रुत रूप ग्रहण किया गया है (जिससे अर्थ होगा कि भावश्रुत का कौन सा व कितना भाग उभयश्रुत रूप में परिणमित होगा?) // यह गाथा का अर्थ पूर्ण होगा // 127 // आखिर इस 'पूर्व-गत' (117वीं) गाथा क्या है? उसे बता रहे हैं (128) बुद्धिद्दिढे अत्थे जे भासइ तं सुयं मईसहियं / इयरत्थ वि होज्ज सुयं उवलद्धिसमं जइ भणेज्जा // [(गाथा-अर्थः) बुद्धि (श्रुत) द्वारा दृष्ट अर्थ में (से कुछ को) जिन्हें (वक्ता) बोलता है, वह मतिसहित (उभयरूप) श्रुत है। इनसे अन्यत्र भी यदि उपलब्धि-समान (जितना जाना, उतना) बोल पाए तो वह, (भाव) श्रुत होगा।] Na 200 -------- विशेषावश्यक भाष्य
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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