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________________ सोऽपि च शेषेन्द्रियाक्षरलाभः स एव श्रुतं, यः किम्?, इत्याह- यः श्रुताक्षराणां लाभः, न सर्वः, य: संकेतविषयशब्दानुसारी, सर्वज्ञवचनकारणो वा विशिष्टः श्रुताक्षरलाभः, स एव श्रुतम्, न त्वश्रुतानुसारी, ईहाऽपायादिषु परिस्फुरदक्षरलाभमात्रमित्यर्थः / जइ व त्ति'। यदि पुनरक्षरलाभस्य सर्वस्यापि श्रुतेन क्रोडीकरणादनक्षरैव मतिरभ्युपगम्येत, तदा सा यथाऽवग्रहेहाऽपायधारणारूपा सिद्धान्ते प्रोक्ता, तथा सर्वाऽपि न प्रवर्तेत, सर्वाऽपि मतित्वं नानुभवेदित्यर्थः, किन्त्वनक्षरत्वादवग्रहमात्रमेव मतिः स्यात्, न त्वीहादयः, तेषामक्षरलाभात्मकत्वात्। तस्माच्छ्रुतानुसार्येवाऽक्षरलाभः श्रुतम्, शेषं तु मतिज्ञानम् // इति गाथार्थः // 126 // तदेवं व्याख्याता भाष्यकृताऽपि सोइंदिओवलद्धी' इत्यादिगाथा, सांप्रतं त्वस्यां यः श्रुतविषयः पर्यवसितोऽर्थः प्रोक्तो भवति, तं संपिण्ड्योपदर्शयति दव्वसुयं भावसुयं उभयं वा किं कहं व होज त्ति। को वा भावसुयंसो दव्वाइसुयं परिणमेजा?॥१२७॥ व्याख्याः- क्या शेष इन्द्रियों से होने वाला वह अक्षरलाभ भी श्रुत है? वह कौन? जो श्रुतअक्षर-सम्बन्धी लाभ (ज्ञान) है, किन्तु वैसा सभी नहीं, अपितु जो संकेत के विषयभूत शब्द का अनुसरण करने वाला होता है या सर्वज्ञ के वचन रूपी कारण से होने वाला जो विशिष्ट श्रुत-अक्षर लाभ होता है, मात्र वही श्रुत है, किन्तु जो श्रुतानुसारी नहीं है, अर्थात् जो ईहा-अपाय आदि में प्रतिभासित मात्र अक्षर लाभ है (वह श्रुत नहीं होता)। (यदि वा-) यदि सभी अक्षरलाभ को श्रुत रूप में अन्तर्गर्भित मान लिया जाय तो मति अनक्षर हो जाएगी और तब अवग्रह-ईहा-अपाय-धारणा रूप मति का जो कथन सिद्धान्त में किया गया है, वह सारी अप्रवृत्त रह जाएगी अर्थात् मतिरूप में अनुभूतं नहीं मानी जाएगी, किन्तु अनक्षर होने से मात्र अवग्रह रूप में ही मति (सीमित) रह जाएगी, ईहा आदि रूप में नहीं, क्योंकि वे (ईहा आदि) अक्षरलाभ रूप होते हैं। इसलिए, (निर्विवाद सिद्धान्त यह हुआ कि) श्रुतानुसारी होने वाला अक्षरलाभ ही श्रुत है, शेष मतिज्ञान है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 126 // (द्रव्यश्रुत आदि क्या है?) इस प्रकार, भाष्यकार ने भी 'श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः भवति' इत्यादि (117 वीं) गाथा का व्याख्यान कर दिया, अब इस गाथा से जो श्रुतविषयक निष्कर्ष या तात्पर्य रुप अर्थ फलित होता है, उसे संक्षिप्त व समुदित कर प्रस्तुत कर रहे हैं (127) दव्वसुयं भावसुयं उभयं वा किं कहं व होज त्ति / को वा भावसुयंसो दव्वाइसुयं परिणमेज्जा? // ----- विशेषावश्यक भाष्य --------199 5
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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