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________________ यदि पुनः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतमेवेत्यवधार्यते, तदा तदुपलब्धेर्मतित्वं सर्वथैव न स्यात्, इष्यते च कस्याश्चित् तदपीति भावः। यदि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतम्, तर्हि शेषं किं भवतु?, इत्याह-'सेसयं त्वित्यादि / श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिं विहाय शेषकं यच्चक्षुरादीन्द्रियचतुष्टयोपलब्धिरूपं तद् मतिज्ञानं भवति' इति वर्तते। तुशब्दः समुच्चये, स चैवं समुच्चिनोति, न केवलं शेषेन्द्रियोपलब्धिर्मतिज्ञानम्, किन्तु श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिश्च काचिदवग्र हेहादिमात्ररूपा मतिज्ञानं भवति, तथा च सत्यनन्तरमवधारणव्याख्यानमुपपन्नं भवति। 'सेसयं तु मइनाणं' इति सामान्येनैवोक्ते शेषस्य सर्वस्याऽप्युत्सर्गेण मतित्वे प्राप्ते सत्यपवादमाह- 'मोत्तूणं दव्वसुयं ति'। पुस्तकादिलिखितं यद् द्रव्यश्रुतं तद् मुक्त्वा परित्यज्यैव शेषं मतिज्ञानं द्रष्टव्यम्, पुस्तकादिन्यस्तं हि भावश्रुतकारणत्वात् शब्दवद् द्रव्यश्रुतमेव, इति कथं मतिज्ञानं स्यात्?, इति भावः। न केवलं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतम्, किन्तु यश्च शेषेषु चतुर्यु चक्षुरादीन्द्रियेषु श्रुतानुसारिसाभिलापविज्ञानरूपोऽक्षरलाभः सोऽपि श्रुतम्, न त्वक्षरलाभमात्रम्, तस्येहाऽपायाद्यात्मके मतिज्ञानेऽपि सद्भावादिति // आह- यदि चक्षुरादीन्द्रियाक्षरलाभोऽपि श्रुतम्, तर्हि यदाद्यगाथावयवे ' श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव श्रुतम्' इत्यवधारणं कृतम्, तद् नोपपद्यते, शेषेन्द्रियोपलब्धेरपीदानीं श्रुतत्वेन समर्थितत्वात् / नैतदेवम्, शेषेन्द्रियाक्षरलाभस्यापि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरूपत्वात्, स हि __ (प्रश्न-) यदि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत है तो शेष क्या है? समाधान इस प्रकार है- (शेषकं तु)। श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि को छोड़कर शेष चक्षुरादि-इन्द्रियोपलब्धियां तो मतिज्ञान (रूप) हैं। इस कथन के आगे 'है' (भवति) इस पद की अनुवृत्ति करनी चाहिए। 'तु' यह पद समुच्चयवाचक है, जो यह अर्थ ध्वनित करता है कि न केवल शेष-इन्द्रियोपलब्धि (ही) मतिज्ञान है, किन्तु कोई-कोई अवग्रह-ईहा आदि मात्र श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि भी मतिज्ञान होती है। इसी अर्थ से पूर्वोक्त अवधारण-सम्बन्धी व्याख्यान की संगति भी बैठ पाती है। शेष सब मतिज्ञान है'- ऐसा सामान्यतया कहने पर, शेष सभी ज्ञान निरपवाद रूप से मतिज्ञान कहे जाने लगेंगे, इसलिए 'अपवाद' का निरूपण भी किया जा रहा है- (मुक्त्वा द्रव्यश्रुतम्)। तात्पर्य है कि पुस्तकादि में लिखित जो द्रव्यश्रुत है, उसे छोड़ कर ही शेष को मतिज्ञान जानें। पुस्तकादि में व्यस्त (स्थित) श्रुत तो उसी प्रकार द्रव्यश्रुत ही है जिस प्रकार भावश्रुत में कारण होने से शब्द को द्रव्यश्रुत माना जाता है, अतः उसे मतिज्ञान कैसे कहा जा सकता है (अर्थात् नहीं कहा जा सकता, इसीलिए 'उसे छोड़कर' यह कहा)। केवल श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि ही श्रुत नहीं है, किन्तु शेष, यानी चक्षु आदि चार इन्द्रियों से, श्रुतानुसारी शब्दोल्लेखसहित ज्ञान रूप जो अक्षरलाभ है, वह भी श्रुत है, किन्तु मात्र अक्षरलाभ श्रुत नहीं है क्योंकि ईहा-अपायरूप मतिज्ञान में भी, उस (अक्षरलाभ) का सद्भाव होता है। - (प्रश्न-) चक्षु आदि इन्द्रियों से हुए अक्षर लाभ को भी श्रुत कहा जाता है तो पूर्व की गाथा में आपने 'श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि ही श्रुत है' ऐसा अवधारित (निर्णीत) किया गया है, वह संगत नहीं ठहरता, क्योंकि शेषइन्द्रियोपलब्धि को भी अभी आपने 'श्रुत' के रूप में समर्थित किया है। (उत्तर-) ऐसी बात नहीं है, शेष-इन्द्रिय-अक्षरलाभ भी श्रोत्रेन्द्रिय-उपलब्धि रूप ही होता है, क्योंकि उसमें - ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 187 RA
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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