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________________ इन्द्रो जीवस्तस्येदमिन्द्रियम्, श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रम्, तच्च तदिन्द्रियं चेति श्रोत्रेन्द्रियम्, उपलम्भनमुपलब्धिर्ज्ञानम्, श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरिति तृतीयासमासः, श्रोत्रेन्द्रियस्य वोपलब्धिः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरिति षष्ठीसमासः, श्रोत्रेन्द्रियद्वारकं ज्ञानमित्यर्थः, श्रोत्रेन्द्रियेणोपलब्धिर्यस्येति बहुव्रीहिणाऽन्यपदार्थे शब्दोऽप्यधिक्रियते। ततश्चाद्यसमासद्वये श्रोत्रेन्द्रियद्वारकमभिलापप्लावितोपलब्धिलक्षणं भावश्रुतमुक्तं द्रष्टव्यम्, बहुव्रीहिणा तु तस्यां भाव श्रुतोपलब्धावनुपयुक्तस्य वदतो द्रव्यश्रुतम्, तदुपयुक्तस्य तु वदत उभयश्रुतमभिहितं वेदितव्यम्। इह च व्यवच्छेदफलत्वात् सर्वं वाक्यं सावधारणं भवति, इष्टश्चाऽवधारणविधिः प्रवर्तते, ततः 'चैत्रो धनुर्धर एव' इत्यादिष्विवेहाऽयोगव्यवच्छेदेनाऽवधारणं द्रष्टव्यम्, तद्यथा- श्रुतं श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव, न तु श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः श्रुतमेवेति, श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिस्तु श्रुतं मतिर्वा भवति, यथा धनुर्धरश्चैत्रोऽन्यो वेति, श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धेरवग्रहेहादिरूपाया मतित्वात्, श्रुतानुसारिण्यास्तु श्रुतत्वादिति। व्याख्याः- इन्द्र का अर्थ है- जीव / जो इन्द्र यानी जीव का है, वह इन्द्रिय है। जिससे सुना जाय वह श्रोत्र है। उपलब्धि का अर्थ है- उपलम्भन या ज्ञान / श्रोत्रेन्द्रिय और उपलब्धि -इन दोनों का तृतीया या षष्ठी तत्पुरुष समास किया जाय तो दोनों का अर्थ होगा- श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा होने वाला ज्ञान / यहां श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा उपलब्धि है जिसको- इस प्रकार बहुब्रीहि समास भी सम्भव है जिससे अन्य पदार्थ की प्रधानता होने से 'शब्द' अर्थ भी यहां अधिकृत (अर्थात् ग्राह्य) होगा। पहले के दो समासों (तृतीया या षष्ठी तत्पुरुष) में श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा शब्दोल्लेख-सहित उपलब्धि रूप भावश्रुत अर्थ अभिहित होता है। बहुब्रीहि समास करने पर, अर्थ होगा- भावश्रुत की उपलब्धि में उपयोगरहित वक्ता का द्रव्यश्रुत; या उसमें उपयोगयुक्त वक्ता का दोनों (द्रव्यश्रत व भाव) श्रृत। सभी वाक्य अवधारण-सहित ('ही' अर्थवाले) होते हैं, क्योंकि उनकी सफलता/ सार्थकता अपने से विपरीत का निवारण करने से ही होती है। वह अवधारण-विधि अभीष्ट प्रयोजन के अनुरूप होती है। जैसे- 'चैत्र धनुर्धर है' इस कथन से यह संकेतित किया जाना अभिप्रेत होता है कि 'चैत्र धनुर्धर ही है, क्योंकि इन वाक्यों में अयोग-व्यवच्छेद' (अयोग= इतर विशेषण का, व्यवच्छेद= निराकरण) करते हुए अवधारण (निर्णय) करना होता है- यह ज्ञातव्य है। (उक्त रीति से) यहां अर्थ होगा- श्रुत श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि ही है, न कि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत ही है -यह अर्थ। क्योंकि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि तो श्रुत भी हो सकती है और मतिरूप भी, यह उसी प्रकार है जैसे कि धनुर्धर चैत्र भी हो सकता है और कोई दूसरा भी। श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि अवग्रह-ईहा आदि रूप में मतिज्ञान रूप भी है, और श्रुतानुसारी हों तो श्रुत रूप भी। तात्पर्य यह है कि यदि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि श्रुत ही है -ऐसा अर्थ किया जाए तो उक्त उपलब्धि की मतिज्ञानरूपता पूर्णतः निराकृत हो जाएगी, किन्तु किसी-किसी श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि की मतिज्ञानरूपता भी अभीष्ट है। Via 186 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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