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________________ तदेवं सप्रसङ्गः प्रदर्शितो लक्षणभेदाद् मति-श्रुतयोर्भेदः, सांप्रतं हेतुफलभावात् तमुपदर्शयन्नाह मइपुव्वं सुयमुत्तं न मई सुयपुव्विया विसेसोऽयं / पुव्वं पूरण-पालणभावाओ जं मई तस्स // 105 // [ संस्कृतच्छाया:- मतिपूर्वं श्रुतमुक्तं न मतिः श्रुतपूर्विका, विशेषोऽयम्। पूर्वं पूरण:पालनभावाद् यद् मतिस्तस्य॥] ___ "मइपुव्वं सुत्तं'' इति वचनादागमे मतिः पूर्वं यस्य तद् मतिपूर्वं श्रुतमुक्तम्, न पुनर्मतिः श्रुतपूर्विका, इत्यनयोरयं विशेषः। यदि ह्येकत्वं मति-श्रुतयोर्भवेत्, तदैवंभूतो नियमेन पूर्व-पश्चाद्भावो घट-तत्स्वरूपयोरिव न स्यात्, अस्ति चायम्, ततो भेद इति भावः। में भी उनके उन (अवधि आदि) ज्ञानों का सद्भाव नहीं कहा गया है। अतः एकेन्द्रियों में (श्रुतज्ञान मानने पर) अन्य ज्ञानों के सद्भाव का प्रसंग नहीं बनता। (प्रश्न-) तो फिर एकेन्द्रियों में मति-श्रुतइन दोनों का भी अभाव क्यों न मान लिया जाय? (इस सम्बन्ध में) उत्तर इस प्रकार है(मतिश्रुतज्ञानावरण-)। (उन एकेन्द्रियों में) मति-श्रुत- इन दोनों के ही आवरण से सम्बन्धित क्षयोपशम है, उसी का कार्य भी दिखाई देता है और सिद्धान्त में उनका (ही) सद्भाव बताया गया है। अतः अपने क्षयोपशम का सद्भाव होने से मति-श्रुत ही उन (एकेन्द्रियों) में हैं (अन्य ज्ञान नहीं)॥ यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 104 // (हेतु व फल की दृष्टि से मति व श्रुत में भेद) इस प्रकार, अब तक प्रसङ्गसहित लक्षण-भेद के आधार पर मति-श्रुत में भेद स्थापित कर दिया गया। अब हेतु-फलभाव के आधार पर मति-श्रुत का परस्पर भेद बताया जा रहा है (105) मइपुव्वं सुयमुत्तं न मई सुयपुब्बिया विसेसोऽयं / पुव्वं पूरण-पालणभावाओ जं मई तस्स // ... [(गाथा-अर्थः) चूंकि मतिज्ञान (श्रुतज्ञान के) पूर्व में रह कर, उस (श्रुतज्ञान) का पूरण व पालन करता है, इसलिए मतिपूर्वक श्रुतज्ञान तो कहा, किन्तु श्रुतपूर्वक मतिज्ञान नहीं, बस यही इन दोनों में अन्तर है।] . व्याख्याः- ‘मतिपूर्वक श्रुतज्ञान' इस आगमिक वचन के रूप में श्रुतज्ञान के पूर्व मतिज्ञान का होना आगम में बताया गया है, किन्तु श्रुतपूर्वक मतिज्ञान होता है- ऐसा नहीं, यही इन दोनों में अन्तर है। यदि मति व श्रुत में एकता होती तो उनमें मति का पूर्वभावी और श्रुत का अनन्तरभावी होना उसी तरह नियत नहीं होता जिस तरह घट और उसका स्वरूप -इन दोनों में (एकत्व होने पर, उनमें से किसी का पूर्ववर्ती होना या परवर्ती होना) नहीं संभव होता। किन्तु ऐसा (मति व श्रुत में, पूर्वपश्चाद्भाव) है, इसलिए इनमें भेद है- यह तात्पर्य है। -- विशेषावश्यक भाष्य ---- ---- 169 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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