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________________ [संस्कृतच्छाया:- एवं सर्वप्रसङ्गः, न तदावरणानामक्षयोपशमात् / मतिश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमतो मति-श्रुते // ] , यदि भाषा-श्रोत्रलब्धिरहितानामपि काष्ठकल्पानां पृथिव्याघेकेन्द्रियाणां स्पष्टं किमप्यनुपलभ्यमानमपि केनापि वागाडम्बरमात्रेण ज्ञानं व्यवस्थाप्यते, तर्हि सर्वेषामपि केवलज्ञानपर्यन्तानां पञ्चानामपि ज्ञानानां प्रसङ्गःसद्भावस्तेषां प्राप्नोतीत्यर्थ:- पञ्चापि ज्ञानान्येकेन्द्रियाणां सन्ति, इत्येतदपि कस्माद् नोच्यते?, स्पष्टानुपलम्भस्य विशेषाभावादिति भावः। अत्रोत्तरमाह- तदेतन्न। कुतः?, इत्याह- तदावरणानामवधि-मन:पर्याय-केवलज्ञानावारककर्मणामक्षयोपशमादिति, अक्षयाच्चेति स्वयमपि द्रष्टव्यम्। इदमुक्तं भवति- केवलज्ञानं तावत् स्वाऽऽवारककर्मणः क्षय एव जायते, अवधि-मन:पर्यायज्ञाने तु तस्य क्षयोपशमे भवतः, एतच्चैकेन्द्रियाणां नास्ति, तत्कार्यादर्शनात्, आगमेऽनुक्तत्वाच्च, इति न सर्वज्ञानप्रसङ्गः। मति-श्रुते अपि तर्हि मा भूताम्, इति चेत् / इत्यत्राह- 'मईत्यादि' मति-श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमस्त्वेकेन्द्रियाणामस्त्येव, तत्कार्यदर्शनात्, सिद्धान्तेऽभिहितत्वाच्च / ततश्च . तत्क्षयोपशमसद्भावाद् मति-श्रुते भवत एव तेषाम् // इति गाथार्थः // 104 // ___ [(गाथा-अर्थः) (शंका-) यदि (एकेन्द्रियों में सूक्ष्म रूप से श्रुतज्ञान है) ऐसा माना जाए तो उनमें सभी ज्ञानों के (सूक्ष्मरूप में) सद्भाव का प्रसंग आ जाएगा? (समाधान-) (अवधिज्ञान आदि) अन्य ज्ञानों के आवरण का न तो उनमें क्षय है और न ही उसका उपशम है (इसलिए समस्त ज्ञानों के सद्भाव की बात स्वतः निरस्त हो जाती है)। वहां मतिश्रुत -इन दो ज्ञानों के आवरण का (ही) क्षयोपशम है, इसलिए उनमें (मात्र) मति व श्रुत ज्ञान हैं।] व्याख्याः - तात्पर्य है कि भाषालब्धि व श्रोत्रलब्धि से रहित, काष्ठ (लकड़ी) जैसे (मूकवत्) पृथ्वी आदि एकेन्द्रियों में स्पष्ट अनुपलब्ध ज्ञान का भी अपने किसी वचन-आडम्बर से सद्भाव यदि सिद्ध करते हैं, तब तो समस्त प्राणियों में 'केवल-ज्ञान' तक के पांचों ज्ञानों के होने का प्रसंग (दोष) आ खड़ा होगा। एकेन्द्रियों को पांचों ही ज्ञान हैं- यही (सीधे-सीधे) क्यों नहीं कह देते? क्योंकि जो स्पष्ट अनुपलब्धि की दृष्टि से सभी ज्ञान समान हैं (अर्थात् स्पष्ट अनुपलब्धि-जैसे श्रुतज्ञान की है, वैसी ही अन्य ज्ञानों की है)। अब (पूर्वोक्त शंका का समाधान रूप) उत्तर इस प्रकार है- (एकेन्द्रियों में मति-श्रुत के अलावा अन्य ज्ञान के होने की) वैसी बात नहीं है। कैसे? उत्तर है- अवधि, मनःपर्यय व केवल ज्ञान -इन कर्मों के आवरण का क्षयोपशम उनके नहीं है, अपितु उन कर्मों का अक्षय ही है, (सद्भाव ही है) -यह भी स्वतः देखा जा सकता है। तात्पर्य यह है कि केवल ज्ञान तो अपने आवरक कर्म के क्षय होने पर ही होता है, अवधि व मनःपर्यय ज्ञान भी अपने (आवरण के) क्षयोपशम से ही होते हैं, और वह (क्षय या क्षयोपशम) एकेन्द्रियों में नहीं है, क्योंकि उसका कोई कार्य (चिन्ह रूप) दृष्टिगोचर भी नहीं होता, और आगम Vie 168 -------- विशेषावश्यक भाष्य - -----
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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