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________________ ततश्चाङ्गाऽनङ्गप्रविष्टादिश्रुतभेदानां सामस्त्येन मतिज्ञानत्वाभावात्, ईहादिषु च मतिभेदेषु श्रुतानुसारित्वाभावेन श्रुतज्ञानत्वासंभवाद् नोभयलक्षणसंकीर्णतादोषोऽप्युपपद्यत इति सर्वं सुस्थम्। न चेह मति-श्रुतयोः परमाणु-करिणोरिवाऽऽत्यन्तिको भेदः समन्वेषणीयः, यतः प्रागिहैवोक्तम्-विशिष्टः कश्चिद मतिविशेष एव श्रुतम्, पुरस्तादपि च वक्ष्यते- वल्कसदृशं मतिज्ञानं तज्जनितदवरिकारूपं श्रुतज्ञानम्, न च वल्क-शुम्बयोः परमाणुकुञ्जरवदात्यन्तिको भेदः, किन्तु कारणकार्यभावकृत एव, स चेहापि विद्यते, मते: कारणत्वेन, श्रुतस्य तु कार्यत्वेनाऽभिधास्यमानत्वात्। न च कारण-कार्ययोरैकान्तिको भेदः, कनककुण्डलादिषु, मृत्पिण्डकुण्डादिषु च तथाऽदर्शनात्। तस्मादवग्रहापेक्षयाऽनभिलापत्वात्, ईहाद्यपेक्षया तु साभिलापत्वात् साभिलापाऽनभिलापं मतिज्ञानम्, अश्रुतानुसारि च, संकेतकालप्रवृत्तस्य श्रुतग्रन्थसंबन्धिनो वा शब्दस्य व्यवहारकालेऽननुसरणात् / श्रुतज्ञानं तु साभिलापमेव, श्रुतानुसार्येव च, संकेतकालप्रवृत्तस्य श्रुतग्रन्थसंबन्धिनो वा शब्दरूपस्य श्रुतस्य व्यवहारकालेऽवश्यमनुसरणादिति स्थितम् // इति गाथार्थः॥१०० // के भेदों में जो श्रुतानुसारी ज्ञानविशेष है, वह श्रुतज्ञान है। इस प्रकार, अंगप्रविष्ट व अनंगप्रविष्ट आदि समस्त श्रुत-भेदों की मतिज्ञानता का दोष नहीं रह जाता, और ईहा आदि मति-भेदों में श्रुतानुसारिता के न होने से श्रुतज्ञानता संभव ही नहीं है तो (मति व श्रुत -इन) दोनों ज्ञानों के लक्षण की संकीर्णता का (अर्थात् लक्षण-सांकर्य का) दोष भी हट जाता है, और सब कुछ समीचीन (दोषरहित) हो जाता है। (विशेष ज्ञातव्य यह है कि) मति व श्रुत में वैसा भी आत्यन्तिक भेद नहीं मानना चाहिए जैसा भेद परमाणु व हाथी में होता है, क्योंकि यहीं हमने पहले कहा है- विशिष्ट दशा को प्राप्त हुआ विशेष मतिज्ञान वल्क (छाल) की तरह है, और उस (छाल) से बनी 'दवरिका' रूप (दरी, गूंथी हुई लड़ी आदि के समान) श्रुतज्ञान है, और छाल व दवरिका में अणु व हाथी जैसा आत्यन्तिक (पूर्णतया एवं जमीन-आसमान का) अन्तर नहीं होता, किन्तु जैसा कारण व कार्य के आधार पर जो भेद होता है, वैसा ही इन दोनों में भेद है, क्योंकि मति कारण है और श्रुत (मति का) कार्य है, जिसका निरूपण आगे क़रेंगे। कारण व कार्य में ऐकान्तिक भेद नहीं होता, जैसे सोने और उससे बने कुण्डल आदि में, तथा मिट्टी के पिण्ड और उससे बने कुण्ड (पात्र) आदि में परस्पर ऐकान्तिक भेद नहीं देखा जाता (माना जाता)। . इसलिए, यह (निष्कर्षतः) निश्चित हुआ कि अवग्रह की अपेक्षा से मतिज्ञान 'अनभिलाप्य' (शब्दोल्लेख-शून्य) है, ईहा आदि की अपेक्षा से साभिलाप्य (शब्दोल्लेखसहित) है, इस तरह मतिज्ञान साभिलाप्य-अनभिलाप्य दोनों प्रकार का है तथा अ-श्रुतानुसारी भी है, क्योंकि संकेतकाल में प्रवृत्त शब्द या श्रुतग्रन्थ सम्बन्धी शब्द का अनुसरण लिए बिना मतिज्ञान व्यवहार-काल में प्रवृत्त होता है। (इसके विपरीत) श्रुतज्ञान तो साभिलाप्य (शब्दोल्लेखसहित) और श्रुतानुसारी होता है, क्योंकि (श्रुतज्ञान के) व्यवहार-काल में ऐसा देखा जाता है कि वहां संकेत-काल में प्रवृत्त या श्रुतग्रन्थ-सम्बन्धी शब्द रूप श्रुत का अनुसरण अवश्य होता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 100 // Sa----------- विशेषावश्यक भाष्य --------161
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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