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________________ अत्राह कश्चित्- ननु यदि शब्दोल्लेखसहितं श्रुतज्ञानमिष्यते, शेषं तु मतिज्ञानम्, तदा वक्ष्यमाणस्वरूपोऽवग्रह एव मतिज्ञानं स्यात्, न पुनरीहाऽपायादयः, तेषां शब्दोल्लेखसहितत्वात्, मतिज्ञानभेदत्वेन चैते प्रसिद्धाः, तत् कथं श्रुतज्ञानलक्षणस्य नाऽतिव्याप्तिदोषः? कथं च न मतिज्ञानस्याव्याप्तिप्रसङ्गः?। अपरं च, अङ्गाऽनङ्गप्रविष्टादिषु 'अक्खर सन्नी सम्मं साईअं खलु सपज्जवसियं च' इत्यादिषु च श्रुतभेदेषु मतिज्ञानभेदस्वरूपाणामवग्रहेहादीनां सद्भावात् सर्वस्यापि तस्य मतिज्ञानत्वप्रसङ्गात्, मतिज्ञानभेदानां चेहाऽपायादीनां साभिलापत्वेन श्रतज्ञानत्वप्राप्तेरुभयलक्षणसंकीर्णतादोषश्च स्यात् // अत्रोच्यते- यत् तावदुक्तम्- अवग्रह एव मतिज्ञानं स्यात्, न त्वीहादयः, तेषां शब्दोल्लेखसहितत्वात्। तदयुक्तम्, यतो यद्यपीहादयः साभिलाषाः, तथापि न तेषां श्रुतरूपता, श्रुतानुसारिण एव साभिलापज्ञानस्य श्रुतत्वात्। अथाऽवग्रहादयः श्रुतनिश्रिता एव सिद्धान्ते प्रोक्ताः, युक्तितोऽपि चेहादिषु शब्दाभिलापः सङ्केतकालाद्याकर्णितशब्दानुसरणमन्तरेण न सङ्गच्छते, अतः कथं न तेषां श्रुतानुसारित्वम्?। तदयुक्तम्, पूर्वं श्रुतपरिकर्मितमतेरेवैते समुपजायन्त इति अवग्रहादि जो ज्ञान इन्द्रिय-मनोनिमित्तक होता हुआ श्रुतानुसारी नहीं होता, वह मतिज्ञान ही होता है- यह तात्पर्य है। - यहां कोई शंकाकार कहता है- यदि 'शब्दोल्लेख ज्ञान श्रुतज्ञान है, शेष मतिज्ञान है' ऐसा माना जाय तो अवग्रह, जिसका स्वरूप आगे बताया जाने वाला है, केवल वही मतिज्ञान कहा जाएगा, और ईहा, अपाय आदि (मतिज्ञान के भेद) मतिज्ञान नहीं कहे जा सकेंगे, क्योंकि वे तो शब्दोल्लेख सहित होते हैं, किन्तु वे तो मतिज्ञान के ही भेद रूप में प्रसिद्ध हैं। और तब श्रुतज्ञान के लक्षण में अंतिव्याप्ति दोष क्या नहीं लगेगा? और साथ ही मति ज्ञान के लक्षण में भी अव्याप्ति दोष क्या नहीं आएगा? ___ दूसरी बात, अंगप्रविष्ट व अनंगप्रविष्ट आदि, तथा अक्षरश्रुत, अनक्षरश्रुत, संज्ञीश्रुत, असंज्ञीश्रुत आदि जो भेद (आगामी 454वीं आदि गाथाओं में) श्रुतज्ञान के बताये गए हैं, उनमें (पूर्वोक्त लक्षण के अनुसार) मतिज्ञान के रूप में परिगणित होने वाले अवग्रहादि के समाहित हो जाने से समस्त श्रुतज्ञान की मतिज्ञानरूपता हो जाएगी, और मतिज्ञान के भेद ईहा-अपाय आदि का शब्दोल्लेखसहित होने से उनकी श्रुतज्ञानता हो जाएगी, इस प्रकार (मति व श्रुत-इन) दोनों के लक्षणों में सांकर्य दोष आ जाएगा। उपर्युक्त शंका का समाधान किया जा रहा है- पहले तो आपने जो यह कहा कि 'अवग्रह ही मतिज्ञान हो पाएगा, और शब्दोल्लेखहित होने के कारण ईहा आदि मतिज्ञान नहीं कहे जा सकेंगे', यह कहना युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि यद्यपि ईहा आदि ज्ञान शब्दोल्लेखसहित हैं, तथापि वे श्रुतज्ञान इसलिए नहीं कहे जाएंगे क्योंकि शब्दोल्लेखसहित ज्ञान तभी श्रुतज्ञान कहलाता है जो श्रुतानुसारी हो। (शंकाकार की ओर से सम्भावित प्रश्न-) अवग्रह आदि को सिद्धान्त में श्रुतनिश्रित ही कहा गया है, युक्ति से भी सोचें तो संकेत-काल आदि में सुने गये शब्द का अनुसरण न हो तो ईहा आदि में ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 159
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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