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________________ तत् किम्?, इत्याह- तद् भाव श्रुतं श्रुतज्ञानमित्यर्थः। इन्द्रिय-मनोनिमित्तं च मतिज्ञानमपि भवति, अतस्तव्यवच्छेदार्थमाह'श्रुतानुसारेणेति'। श्रूयत इति श्रुतं द्रव्यश्रुतरूपं शब्द इत्यर्थः, स च संकेतविषयपरोपदेशरूपः, श्रुतग्रन्थात्मकश्चेह गृह्यते, तदनुसारेणैव यदुत्पद्यते तत् श्रुतज्ञानम्, नान्यत्। इदमुक्तं भवति- संकेतकालप्रवृत्तं श्रुतग्रन्थसंबन्धिनं वा घटादिशब्दमनुसृत्य वाच्यवाचकभावेन संयोज्य 'घटो घटः' इत्याद्यन्त ल्पाकारमन्तःशब्दोल्लेखान्वितमिन्द्रियादिनिमित्तं यज्ज्ञानमुदेति ज्ञानमिति। तच्च कथंभूतम्? इत्याह- 'निजकाऽर्थोक्तिसमर्थमिति'। निजकः स्वस्मिन् प्रतिभासमानो योऽसौ घटादिरर्थस्तस्योक्तिः परस्मै प्रतिपादनं तत्र समर्थं क्षमं निजकाऽर्थोक्तिसमर्थम्, अयमिह भावार्थ:- शब्दोल्लेखसहितं विज्ञानमुत्पन्नं स्वप्रतिभासमानार्थप्रतिपादकं शब्दं जनयति, तेन च परः प्रत्याय्यते, इत्येवं निजकाऽर्थोक्तिसमर्थमिदं भवति, अभिलाप्यवस्तुविषयमिति यावत्। स्वरूपविशेषणं चैतत, शब्दानुसारेणोत्पन्नज्ञानस्य निजकार्थोक्तिसामर्थ्याऽव्यभिचारादिति। 'मई सेसं ति'। शेषमिन्द्रियमनोनिमित्तमश्रुतानुसारेण यदवग्रहादिज्ञानं, तद् मतिज्ञानमित्यर्थः॥ (प्रश्न-)यह क्या है? (उत्तर-) वही भावश्रुत है यानी श्रुतज्ञान है। चूंकि इन्द्रियमनोनिमित्तक ज्ञान तो मतिज्ञान भी होता है, अतः उस (की मतिज्ञानता) के निराकरण हेतु कहा- (श्रुतानुसारेण-) जो सुना जाय, वह शब्द 'द्रव्यश्रुत' रूप है, वह (दो प्रकार का होता है- इसलिए) संकेत विषयक परोपदेश रूप और शास्त्र रूप भी होता है। यहां श्रुत रूप से दोनों ही प्रकार ग्राह्य हैं। इस प्रकार के 'श्रुत' के अनुसार जो उत्पन्न होता है, वह श्रुतज्ञान है, और कुछ ( यानी मतिज्ञान) नहीं। तात्पर्य यह है कि संकेत-समय प्रयुक्त शब्द का या फिर श्रुत-शास्त्र से सम्बन्धित घट आदि शब्द का अनुसरण कर (उसे सुनकर), (मन में) वाच्य-वाचक भाव से (अर्थात् सुने हुए शब्द का वाच्य अर्थ यह है, और इस अर्थ का वाचक अमुक शब्द है- इस प्रकार) संयोजित कर ‘घट घट है' (यह घट शब्द है, यह घट पदार्थ उसका वाच्य है) इत्यादि आन्तरिक रूप से होने वाले 'अन्तर्जल्प' के आकार वाला, अन्तःकरण में शब्दोल्लेखसहित, इन्द्रियादिनिमित्तक जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह श्रुतज्ञान है। वह कैसा होता है? इसलिए कहा- (निजकार्थ- उक्तिसमर्थम-) जो अपना, यानी स्वयं में प्रतिभासमान जो घटादि पदार्थ, उसके कथन में, यानी दूसरे को प्रतीति कराने में समर्थ होता है। तात्पर्य यह है कि शब्दोल्लेखसहित जो विज्ञान उत्पन्न होता है, वह स्वयं में अन्तर्निहित प्रतीयमान अर्थ के प्रतिपादक शब्द को उत्पन्न करता है, जिससे दूसरा व्यक्ति (वक्ता के भाव को) समझता है, इस प्रकार यह ज्ञान अपने अर्थ की प्रतीति कराने में समर्थ होता है, अर्थात् उस ज्ञान का विषय उसका अपना कथनीय पदार्थ होता है। 'स्वकीय-अर्थ-प्रतिपादनसमर्थ' यह ज्ञान का स्वरूप-विशेषण है, क्योंकि शब्दानुसारी उत्पन्न ज्ञान अव्यभिचरित (निश्चित) रूप से स्वकीय-अर्थ-प्रतिपादनसमर्थ होता ही है। (मतिःशेषम्-) अवशिष्ट -------- विशेषावश्यक भाष्य - -
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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