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________________ तथाहि-'अन्ने मग्गंति मई वग्गसमा सुंबसरिसयं तु सुत्तं' इत्यादिना ग्रन्थेन कारणत्वाद् वल्कसदृशं मतिज्ञानं, सुंबसदृशं तु श्रुतज्ञानं कार्यत्वादित्यत्रैव वक्ष्यते। तत्र वल्कः पलाशादित्वग्रूपः, शुम्बं त्वितरशब्देनेहोपात्तं तज्जनिता दवरिकोच्यते। ततश्चायमभिप्रायः- यथा वलनादिसंस्कृतो विशिष्टावस्थापन्नः सन् वल्को 'दवरिका' इत्युच्यते, तथा परोपदेशाहद्वचनसंस्कृतं विशिष्टावस्थाप्राप्तं सद् मतिज्ञानं श्रुतमभिधीयते, इत्येवं वल्केतरभेदाद् मति-श्रुतयोर्भेदः। तथा- अन्ने अणक्खरक्खरविसेसओ मइसुयाइं भिदन्ति / जं मइनाणमणक्खरमक्खरमियरं च सुयनाणं // -इत्यादिग्रन्थेन . वक्ष्यमाणादक्षरेतरभेदात् तयोर्भेदः। तथा- सपरप्पच्चायणओ भेओ मूयेयराण वाऽभिहिओ। जं सुयं मइनाणं सपरप्पच्चायगं सुत्तं // -इत्याद्यभिधास्यमानवचनाद् मूकेतरभेदाद् मति-श्रुतयोर्भेदः। इति गाथासंक्षेपार्थः, विस्तरार्थं तु भाष्यकार: स्वत एव वक्ष्यति। इयं च गाथा बहुष्वादशॆषु न दृश्यते, केवलं क्वचिदादर्शेऽपि दृष्टा, अतीव सोपयोगा च, इत्यस्माभिः किञ्चिद्व्याख्यातेति // 27 // उदाहरणार्थ- आगे 154वीं गाथा ‘अन्ये मन्यन्ते मतिः वल्कसमा' के द्वारा "श्रुतज्ञान का कारण मतिज्ञान वल्कल (छाल) के समान है, और श्रुतज्ञान कार्य होने से अवल्क रूप-सुंब या शुम्ब है' जिसका निरूपण आगे किया जाएगा। यहां वल्क का अर्थ है- पलाश आदि की छाल, और अवल्क रूप 'शुम्ब' जो यहां प्रयुक्त है, उसका अर्थ है उस छाल से बनी 'दवरिका' (छाल को गूंथकर बनाई हुई दरी, चटाई या लड़ी)। इस प्रकार कहने का अभिप्राय यह है कि जैसे गूंथने आदि से. परिष्कृत होकर छाल एक विशिष्ट रूप को प्राप्त कर ‘दवरिका' (दरी) कही जाती है, उसी तरह परोपदेश यानी अर्हद्-वचन के रूप में सुसंस्कृत होकर मतिज्ञान ही विशिष्ट स्थिति (स्वरूप) को प्राप्त होता हुआ श्रुतज्ञान के रूप में जाना जाता है, इस प्रकार वल्क-अवल्क के रूप में इनकी भिन्नता होने से भी मति व श्रुत में भिन्नता है। तथा आगे 162वीं गाथा में कहा गया है कि “कुछ लोग अक्षर व अनक्षर रूप में मति व श्रुत में भिन्नता मानते हैं क्योंकि मतिज्ञान अनक्षर है और श्रुतज्ञान उससे भिन्न अक्षरात्मक है।" अतः अक्षर व अनक्षर- इन रूपों के आधार पर भी इन दोनों (मति व श्रुत) में भिन्नता है। तथा आगे (171वीं गाथा द्वारा) यह कहा गया है कि “मति ज्ञान मूक है और श्रुत स्वपरप्रत्यायक (स्व और पर को प्रतीति कराने वाला) होने से अमूक (मुखर) है।'' अतः मूक व मूकेतर (यानी मुखर) रूप में परस्पर भेद होने से भी इन (मति व श्रुत) में भिन्नता है। यह गाथा का संक्षिप्त अर्थ हुआ, विस्तृत अर्थ तो भाष्यकार स्वयं ही आगे कहेंगें। __ यह गाथा अनेक प्रतियों में उपलब्ध नहीं है, केवल किसी एक प्रति में दृष्टिगोचर होती है, किन्तु चूंकि यह अत्यन्त उपयोगी है, इसलिए हमने इसकी कुछ व्याख्या की है॥१७॥ Ma 154 ---- --- विशेषावश्यक भाष्य--
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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