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________________ अत्राऽऽचार्यः प्रत्युत्तरमाह- 'लक्खणेत्यादि / तेषां स्वामित्वादीनामविशेषस्तदविशेषस्तत्र सत्यपि मति-श्रुतयो नात्वं भिन्नत्वमस्ति। किंकृतम्?, इत्याह- लक्षणभेदादिकृतं, आदिशब्दाद् वक्ष्यमाणकार्यकारणभावादिपरिग्रहः। इदमुक्तं भवति- यद्यपि स्वामि-कालादिभिर्मतिश्रुतयोरेकत्वम्, तथापि लक्षण-कार्यकारणभावादिभिर्नानात्वमस्त्येव, घटाकाशादीनामपि हि सत्त्वप्रमेयत्वाऽर्थक्रियाकारित्वादिभिः साम्येऽपि लक्षणादिभेदाद् भेद एव। यदि पुनर्बहुभिर्धर्मं दे सत्यपि कियद्धर्मसाम्यमात्रादेवाऽर्थानामेकत्वं प्रेर्यते, तदा सर्वं विश्वमेकं स्यात, किं हि नाम तद् वस्त्वस्ति यस्य वस्त्वन्तरैः सह कैश्चिद् धर्न साम्यमस्ति? / तस्मात् स्वाम्यादिभिस्तुल्यत्वेऽपि लक्षणादिभिर्मति-श्रुतयोर्भेदः // इति गाथार्थः॥१६॥ तान्येव लक्षणादीनि पुरतो विस्तराभिधेयात् संपिण्ड्यैकगाथया दर्शयति ले लेने जैसा (स्वघाती) कार्य किया है, क्योंकि (यदि आपकी बात मान ली गई) फिर तो स्वामित्व / आदि अपेक्षाओं से मति व श्रुत की एकता ही स्थापित हो जाती है, और (पांच संख्या का व्याघात होने से) पांच ज्ञान की सिद्धि नहीं हो पाएगी, क्योंकि धर्म के भेद होने पर ही वस्तु का भेद माना जाता है (और मति व श्रुत में धर्म-भेद न होने पर दोनों को एक मानना पड़ेगा)। तात्पर्य यह है कि धर्म-भेद न होने पर भी वस्त की भिन्नता मानी जाय तो घट व घटस्वरूप-इन दोनों को भिन्न माना जाने लगेगा, इसलिए जैसे घट व घट-स्वरूप में अभेद माना जाता है, वैसे ही मति व श्रत में अभेद ही मानना श्रेयस्कर होगा। अब (उपर्युक्त शंका का समाधान हेतु) आचार्य अपने प्रत्युत्तर में कह रहे हैंक्षणभेदादिकतम-) यद्यपि स्वामित्व आदि की दृष्टि से उनमें अभेद है, फिर भी मति व श्रत में नानात्व है और दोनों भिन्न-भिन्न हैं। क्यों भिन्न हैं? उत्तर दिया- लक्षण-भेद आदि के कारण। 'आदि' पद से आगे कहे जाने वाले कार्यकारणभाव आदि का ग्रहण कर लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि यद्यपि स्वामित्व व काल आदि की अपेक्षाओं से मति व श्रुत की एकता (अभिन्नता) है, तथापि लक्षण व कार्यकारणभाव आदि की अपेक्षा से दोनों में नानात्व उसी प्रकार ही है, जिस प्रकार घटाकाश व पटाकाश आदि में यद्यपि सत्त्व, प्रमेयत्व, अर्थक्रियाकारित्व आदि की दृष्टि है, तथापि लक्षण आदि की भिन्नता के कारण उनमें (स्पष्ट) भेद ही (माना जाता है। यदि बहुत से धर्मों की भिन्नता होने पर भी, कुछ धर्मों की समता के आधार पर पदार्थों में एकत्व माना जाय तो समस्त विश्व ही एक हो जाएगा। ऐसी कौन सी वस्तु है जो अन्य वस्तुओं के साथ कछ धर्मों के आधार पर साम्य नहीं रखती? इसलिए स्वामी आदि की अपेक्षा से तुल्यता होने पर भी, लक्षण आदि की अपेक्षा से मति व श्रुत में भिन्नता (ही) है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 16 // अब (मति व श्रुत में भिन्नता को पुष्ट करने वाले) लक्षण आदि को आगे विस्तार से कहने के पहले उन्हें एकत्रित कर एक गाथा के माध्यम से बता रहे हैं से Ma 152 -------- विशेषावश्यक भाष्य - -----
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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