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________________ तच्चाऽवधि-मनःपर्याय-केवलज्ञानभेदात् त्रिविधं त्रिप्रकारम, तस्यैव साक्षादर्थपरिच्छेदकत्वेन जीवं प्रति साक्षाद वर्तमानत्वात् // इति गाथार्थः॥४९॥ अथ परोक्षज्ञानस्वरूपमाह अक्खस्स पोग्गलकया जं दव्विन्दिय-मणा परा तेणं। तेहिं तो जं नाणं परोक्खमिह तमणुमाणं व॥१०॥ [संस्कृतच्छाया:- अक्षस्य पुद्गलकृतानि यद् द्रव्येन्द्रियमनांसि पराणि तेन / तैस्तस्माद् यज्ज्ञानं परोक्षमिह तदनुमानमिव // ] . यद् यस्माद् द्रव्येन्द्रियाणि द्रव्यमनश्च, अक्षस्य जीवस्य पराणि भिन्नानि वर्तन्ते। कथंभूतानि पुनर्द्रव्येन्द्रिय-द्रव्यमनांसि?, इत्याह- पुद्गलकृतानि पुद्गलस्कन्धनिचयनिष्पन्नानि, हेतुद्वारेण चेदं विशेषणं द्रष्टव्यम्-पुद्गलकृतत्वाद, येन द्रव्येन्द्रिय-मनांसि जीवस्य परभूतानि, तेन तेभ्यो यद् मति-श्रुतलक्षणं ज्ञानमुत्पद्यते, तत् तस्य साक्षादनुत्पत्तेः परोक्षम्, अनुमानवदिति। (स्वामित्वपूर्वक रक्षण आदि) करता है और कभी भोजन (या भोग-उपभोग) करता है, इसलिए . . निपातन (व्याकरण-प्रक्रिया) से उसे 'अक्ष' कहा जाता है- यह तात्पर्य है। इस प्रकार पदार्थ-व्याप्ति व भोजन गुणवत्ता- इनके कारण जीव की 'अक्ष' संज्ञा सिद्ध (संगत) होती है। इस अक्ष या जीव के प्रति जो ज्ञान इन्द्रिय-निरपेक्ष व साक्षात् होता है, वह ज्ञान प्रत्यक्ष' है। वह प्रत्यक्षज्ञान (1) अवधि, (2) मनःपर्यय व (3) केवलज्ञान -इस प्रकार से तीन प्रकार का है, क्योंकि प्रत्यक्ष ही पदार्थों का साक्षात् ज्ञायक (ग्राहक) होते हुए जीव के प्रति साक्षात् वर्तमान रहता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ ||89 // भाष्यकार परोक्ष ज्ञान के स्वरूप का निरूपण कर रहे हैं (90) अक्खस्स पोग्गलकया जं दविन्दिय-मणा परा तेणं। तेहिं तो जं नाणं परोक्खमिह तमणुमाणं व // [(गाथा-अर्थः) चूंकि पुद्गल से निर्मित द्रव्येन्द्रिय व द्रव्य मन अक्ष से 'पर' यानी भिन्न हैं, अतः उनके 'पर' होने से, उनके माध्यम से आत्मा को जो ज्ञान होता है, वह उसी तरह परोक्ष है, जिस तरह अनुमान (परोक्ष है)।] व्याख्याः - (यद्) चूंकि द्रव्येन्द्रिय व द्रव्यमन 'अक्ष' रूप जीव से 'पर' यानी भिन्न हैं। द्रव्येन्द्रिय व द्रव्यमन कैसे हैं? इसके उत्तर में कहा- (पुद्गलकृतानि)- पौलिक स्कन्धसमूह से निष्पन्न (बने हुए) हैं। इस ‘पुद्गल-कृतानि' को हेतुपरक रूप में विशेषण समझना चाहिए, अर्थात् (इसे 'पुद्गलकृतत्वात्' इस रूप में पढ़ना चाहिए)- चूंकि ये पुद्गलनिर्मित हैं, इसलिए (अजीवात्मक होने के कारण) परभूत हैं, और चूंकि ये परभूत हैं, इसलिए और उनके माध्यम से होने वाला मतिश्रुत लक्षण जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह जीव के साक्षात् उत्पन्न न होने से 'परोक्ष' ही है, उसी तरह जैसे 'अनुमान' को परोक्ष माना जाता है। Ma 140 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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