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________________ इदमुक्तं भवति- यथा नायक-विदूषक-कपि-राक्षसादिपात्रावसरेषु वेषान्तराण्यापन्नो वेषान्तरापन्नो नटो बहुरूपः, एवमुत्फणविफणादिभावैर्यद्यपि द्रव्यमपि बहुरूपम्, तथापि नित्यमेव, स्वयमविकारित्वात्, आकाशवत्- यथा हि घट-पटादिसंबन्धेन बहुरूपमप्याकाशं स्वयमविकारित्वाद् नित्यम्, एवं द्रव्यमपीति भावः॥ इति गाथार्थः // 67 // कारणमेव च सर्वत्र त्रिभुवने विद्यते, न क्वचित् कार्यम्, यच्च कारणं तत् सर्वं द्रव्यमेव, इति दर्शयन्नाह पिंडो कारणमिटुं पयं व परिणामओ तहा सव्वं। आगाराइ न वत्थु निक्कारणओ खपुष्पं व॥६८॥ [संस्कृतच्छाया:-पिण्ड: कारणमिष्टं पय इव परिणामतस्तथा सर्वम्। आकारादिर्न वस्तु निष्कारणतः खपुष्पमिव॥] मृदादिपिण्डः कारणमिष्टं कारणमात्रमेवाऽभ्युपगभ्यते। कुतः?, इत्याह- परिणामित्वात् परिणमनशीलत्वात्, पयोवद् दुग्धवत् / यथा च पिण्डः, तथाऽन्यदपि सर्वं स्थास-कोश-कुशूलादिकं त्रैलोक्यान्तर्गतं वस्तु कारणमात्रमेव, परिणामित्वात्, पयोवत्। यद् यत् कारणं तत् सर्वं द्रव्यमेव, इति द्रव्यनयस्य स्वपक्षसिद्धिः। तात्पर्य यह है कि, जैसे नायक, विदूषक, वानर, राक्षस आदि पात्र (के अभिनय करने) के अवसरों पर दूसरे-देसरे वेशों को धारण करता हुआ बहुरूपिया नट (स्वयं अविकारी, एकस्वभावी रहता) है, और ऊंचे फण वाली तथा उससे भिन्न आदि स्थितियों में यद्यपि (सर्प) द्रव्य बहुरूपवाला होता है, तथापि वह नित्य है, क्योंकि वह द्रव्य उसी प्रकार अविकारी है जिस प्रकार, घट-पट आदि (विविध) पदार्थों के सम्बन्ध से (घटाकाश, पटाकाश आदि रूप में परिणत होने से) बहुरूपी आकाश स्वयं नित्य व अविकारी बना रहता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 67 // इस त्रिभुवन में 'कारण' ही सर्वत्र है, कहीं भी (घटाकाश आदि नवीन पदार्थों की उत्पत्ति रूप) कार्य नहीं है, और जो कारण है वह द्रव्य है- इस तथ्य को भाष्यकार प्रतिपादित कर रहे हैं // 68 // पिंडो कारणमिटुं, पयं व परिणामओ तहा सव्वं। . आगाराइ न वत्थु, निक्कारणओ खपुप्फं व // [(गाथा-अर्थः) अपने परिणामीपने के कारण जिस प्रकार दूध (दही, मक्खन आदि का) कारण है, उसी तरह (मिट्टी का) पिण्ड और इसी प्रकार (अन्य) समस्त द्रव्य (भी) (अपने-अपने पर्यायों के) 'कारण' रूप से (हमें) मान्य हैं। जिस प्रकार आकाश-पुष्प निष्कारण होने से अवस्तु है, उसी तरह आकार आदि भी (अवस्तु) हैं।] व्याख्याः- मिट्टी आदि का पिण्ड 'कारण' यानी कारण मात्र ही है- यह हम मान रहे हैं। किस आधार पर? (उत्तर-) परिणामी यानी परिणामशील होने से दुग्ध की तरह। मृत्पिण्ड की तरह ही, स्थान, कोश, कुशूल आदि समस्त वस्तु कारणमात्र ही है, परिणामी होने से, दूध की तरह। जो जो कारण है, वह सब द्रव्य ही है- इस प्रकार द्रव्यनय द्वारा अपने पक्ष की सिद्धि होती है। Via 104 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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