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________________ आविर्भावश्च तिरोभावश्च तावेव तन्मात्रं तदेव परिणामस्तस्य कारणं द्रव्यम्, यथा सर्प उत्फण-विफणावस्थयोरिति, न ह्यत्राऽपूर्वे किञ्चिदुत्पद्यते, किं तर्हि?, छन्नरूपतया विद्यमानमेवाऽऽविर्भवति। नाऽप्याविर्भूतं सद् विनश्यति, किन्तु च्छन्नरूपतया तिरोभावमेवाऽऽ सादयति। एवं च सत्याविर्भाव-तिरोभावमात्र एव कार्योपचारात् कारणत्वमस्यौपचारिकमेव। तस्मादुत्पादादिरहितं द्रव्यमुच्यत इति। आह- ननु यद्येकस्वभावं निर्विकारं द्रव्यम्, त_नन्तकालभाविनामनन्तानामप्याविर्भाव-तिरोभावानामेकहेलयैव कारणं किमिति न भवति?, इत्याह- अचिन्त्यमचिन्त्यस्वभावं द्रव्यम्, तेनैकस्वभावस्याऽपि तस्य क्रमेणैवाऽऽविर्भाव-तिरोभावप्रवृत्तिः, सर्पादिद्रव्येष्वेकस्वभावेष्वप्युत्फण-विफणादिपर्यायक्रमप्रवृत्तेः प्रत्यक्षसिद्धत्वादिति। ननु यद्येवम्, उत्फण-विफणादिबहुरूपत्वात् पूर्वाऽवस्थापरित्यागेन चोत्तरावस्थाऽधिष्ठानाद् अनित्यता द्रव्यस्य किमिति न भवति? इति चेत्, इत्याह- वेषान्तरापन्ननटवद् बहुरूपमपि द्रव्यं नित्यमेव। व्याख्याः- आविर्भाव और तिरोभाव- इन दोनों को ही परिणाम कहा जाता है, उसका कारण 'द्रव्य' है। जैसे ऊंचे फण या बिना फण -इन दोनों स्थितियों में 'सर्प' (कारण है), इन (दोनों स्थितियों) में कोई अपूर्व (वस्तु) उत्पन्न नहीं होती। तो क्या होता है? (उत्तर-) जो अव्यक्त- (प्रच्छन्न) रूप से, स्थित था, उसी का आविर्भाव होता है (और कुछ नहीं)। (इसी तरह) जो आविर्भूत हुआ, वह (भी) नष्ट नहीं होता, (मात्र) तिरोभूत हो जाता है। इस प्रकार, आविर्भाव व तिरोभाव मात्र (जो हो रहा है, उस) में 'कार्य' का उपचार करते हैं और (उस कार्य का) द्रव्य को कारण मानना भी औपचारिक ही है। अतः द्रव्य को उत्पाद आदि से रहित कहा जाता है। - यहां शंकाकार पुनः शंका कर रहा है- यदि द्रव्य एकस्वभाव वाला व निर्विकार है, तो वह अनन्त काल तक होते रहने वाले अनन्त आविर्भाव-तिरोभावों (रूप परिणामों) का एक काल में ही कारण क्यों नहीं हो जाता? इस शंका का समाधान कर रहे हैं- वह द्रव्य 'अचित्य' है- अर्थात् अचिन्त्य स्वभाव वाला है, इसलिए एक स्वभावी होते हुए भी उस द्रव्य में क्रम से ही आविर्भाव व तिरोभावों की प्रवर्तना (परम्परा-प्रवाह) होती है, यह उसी प्रकार है जैसे एक स्वभाव वाले सर्प आदि द्रव्यों में भी ऊंचा फण करना, फण को फैलाना आदि पर्यायों की क्रमिक प्रवर्तना होती प्रत्यक्ष देखी जाती है। अब पुनः शंका की जा रही है- अच्छा, यदि ऐसी बात है तो फण फैलाना, फण सिकुड़ना आदि बहुविध रूपों में पूर्व स्थिति का त्याग होकर उत्तर अवस्था प्रतिष्ठित होती (सत्ता में आती) है, तब तो इस से द्रव्य की अनित्यता (मानी जानी चाहिए, वह) क्यों नहीं मानी जाती? इस शंका का समाधान किया जा रहा है- (उत्तर-) वेशान्तर को प्राप्त नट की तरह, बहुरूपी द्रव्य भी नित्य ही है (अनित्य नहीं)। Ma ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 103 2
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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